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________________ अन्य टीकाएँ ४२५ में बहुत लंबी प्रशस्ति है जिसमें वृत्तिकार का गुरु-परम्परा आदि का उल्लेख है। वृत्तिकार ने अपने को आनन्दविमलसूरि का शिष्य बताया है : शिष्यो भूरिगुणानां, युगोत्तमानन्दविमलसूरीगणाम् । निर्मितवान् वृत्तिमिमामुपकारकृते विजयविमलः ।। ७४ ॥ वृत्ति का रचना-काल बताते हुए कहा गया है : तेषां श्रीसुगुरूणां, प्रसादमासाद्य संश्रुतानन्दः । वेदाग्निरसेन्दु (१६३४) मिते, विक्रमभूपालतो वर्षे ॥ ७३ ।। वत्ति का ग्रंथमान निम्नोक्त है : प्रत्यक्षरं गणनया, वृत्तेर्मानं विनिश्चितम् । सहस्राः पञ्च सार्द्धानि, शतान्यष्टावनुष्टुभाम् ॥ ७७ ।। तंदुलवैचारिकवृत्ति : विजयविमलविहित तन्दुलवैचारिकवृत्ति' के आरम्भ में ऋषभ, महावीर, गौतम, सिद्धान्त और स्वगुरु को प्रणाम किया गया है : ऋषभं वृषसंयुक्तं, वोरं वैरनिवारकम् । गौतमं गुणसंयुक्तं, सिद्धान्तं सिद्धिदायकम् ॥ १॥ प्रणम्य स्वगुरुं भक्त्या, वक्ष्ये व्याख्यां गुरोः शभाम् । तंदुलाख्यप्रकोर्णस्य, वैराग्यरसवारिधेः ॥ २ ॥ यह वृत्ति संक्षिप्त एवं शब्दार्थप्रधान होने के कारण अवचूरि भी कही जाती है। इसमें कहीं-कहीं अन्य ग्रन्थों के उद्धरण भी दिये गये हैं। वृत्तिकार आनन्दविमलसूरि के शिष्य हैं । गुण सौभाग्यगणि से प्राप्त तन्दुलवैचारिक के ज्ञान के आधार पर ही प्रस्तुत वृत्ति लिखी गयी है :२ __इति श्रीहीरविजयसूरिसेवितचरणेन्दीवरे श्रीविजयदानसूरीश्वरे विजयमाने वैराग्यशिरोमणीनां श्रीआनंदविमलसूरिश्वराणां शिष्याणुशिष्येण विजयविमलाख्येन पण्डितश्रीगुणसौभाग्यगणिप्राप्ततंदुलवैचारिकज्ञानांशेन श्रीतंदुलवैचारिकस्येयमवचूरिः समर्थिता। गच्छाचारटीका : इस टोका के प्रणेता वानरषि तपागच्छीय आनन्दविमलसरि के शिष्य है। टीका बहत संक्षिप्त है। इसकी रचना का मुख्य आधार हर्षकुल से प्राप्त हुआ १. चतुः शरण की अवचूरि ( लेखक का नाम अज्ञात ) सहित-देवचन्द्र . लालाभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् १९२२. २. पृ० ५६ । ३. आगमोदय समिति, मेहसाना, सन् १९२३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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