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________________ २०८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास एक-दूसरे के उपाश्रय के समीप रहने का प्रसंग आने पर एक-दूसरे के व्यवहार से सम्बन्ध रखनेवाली यतनाएँ ।' अनेकवगडा-एकद्वार वाले ग्राम, नगर आदि में साधु-साध्वियों को साथ रहने से लगने वाले दोषों की ओर निर्देश करते हुए कुसुंबल वस्त्र की रक्षा के लिए नग्न होने वाले अगारो, अश्व, फुम्फुक और पेशी के उदाहरण दिये गये हैं। द्वितीय वगडासूत्र की व्याख्या करते हुए इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि श्रमण-श्रमणियों को अनेकवगडा-अनेकद्वार वाले ग्राम, नगर आदि में रहना चाहिए। जिस ग्राम आदि में श्रमण और श्रमणियों की भिक्षाभूमि, स्थंडिलभूमि, विहारभूमि आदि भिन्न-भिन्न हों वहीं उन्हें रहना चाहिए। आपणगृहादिप्रकृतसूत्र : आपणगृह, रथ्यामुख, शृङ्गाटक, चतुष्क, चत्वर, अंतरापण आदि पदों की व्याख्या करते हुए आचार्य ने इन स्थानों पर बने हुए उपाश्रय में रहने वाली श्रमणियों को लगने वाले दोषों और प्रायश्चित्तों का वर्णन किया है । सार्वजनिक स्थानों में बने हुए उपाश्रयों में रहने वाली श्रमणियों के मन में युवक, वेश्याएँ, वरघोड़े, राजा आदि अलंकृत व्यक्तियों को देखने से अनेक दोषों का उद्भव होता है । इस प्रकार आम रास्ते पर रहने वाली साध्वियों को देख कर लोगों के मन में अनेक प्रकार के अवर्णवादादि दोष उत्पन्न होते हैं। यदि किसी कारण से इस प्रकार के उपाश्रय में रहना ही पड़े तो उसके लिये आचार्य ने विविध यतनाओं का विधान भी किया है। अपावृतद्वारोपाश्रयप्रकृतसूत्र : श्रमणियों को बिना द्वार के खुले उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए। कदाचित् द्वारयुक्त उपाश्रय अप्राप्य हो तो खुले उपाश्रय में परदा बाँध कर रहना चाहिए । इस सूत्र को व्याख्या में निम्न बातों का समावेश किया गया है : निर्ग्रन्थी विषयक अपावृतद्वारोपाश्रय सूत्र आचार्य यदि प्रवर्तिनी को न समझावे, प्रवर्तिनी यदि अपनी साध्वियों को न सुनावे, साध्वियां यदि उसे न सुनें तो उन्हें लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, बिना दरवाजे के उपाश्रय में रहने वाली प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और श्रमणियों को लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त, आप १. गा० २२३२-२२७७. ३. गा० २२८८-९. २. गा० २२७८-२२८७. ४. गा० २२९५-२३२५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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