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________________ बृहत्कल्प-लघुभाष्य २०७ क्षेत्र को दबाने का विचार करने वाले तथा उस क्षेत्र में जाने का निर्णय करने वाले आचार्य, उपाध्याय आदि के लिए प्रायश्चित्त, वेदोदय आदि दोषों का अग्नि, योद्धा और गारुडिक के दृष्टान्तों द्वारा समर्थन, श्रमण और श्रमणियां 'भिन्न-भिन्न उपाश्रय में रहते हुए एक-दूसरे के सहवास से दूर रह सकते हैं किन्तु ग्राम आदि में रहने वाले श्रमणों के लिए गृहस्थ स्त्रियों का सहवास तो अनिवार्य है, ऐसी दशा में श्रमणों के लिए वनवास ही श्रेष्ठ है-इस प्रकार की शंका का समाधान, श्रमणियों के सहवास वाले ग्राम आदि के त्याग के कारण, एक वगडा और एक द्वार वाले क्षेत्र में रहने वाले साधु-साध्वियों को विचारभूमिस्थंडिलभूमि, भिक्षाचर्या, विहारभूमि, चैत्यवन्दन आदि कारणों से लगने वाले दोष और उनके लिए प्रायश्चित्त, एक वगडा आदि वाले जिस क्षेत्र में श्रमणियाँ रहती हों वहाँ रहने वाले श्रमणों से कुलस्थविरों द्वारा रहने के कारणों की पूछताछ, कारणवशात् एक क्षेत्र में रहने वाले श्रमण-श्रमणियों के लिए विचारभूमि, 'भिक्षाचर्या आदि विषयक व्यवस्था, भिन्न-भिन्न समुदाय के श्रमण अथवा श्रमणियाँ एक क्षेत्र में एक साथ रहे हुए हों और उनमें परस्पर कलह होता हो तो उसकी शांति के लिए आचार्य, प्रवर्तिनी आदि द्वारा किए जाने वाले उपाय, न करने वाले को लगने वाले कलंकादि दोष और उनका प्रायश्चित्त ।' साधु-साध्वियों को एक वगडा और अनेक द्वार वाले स्थान में एक साथ रहने से जो दोष लगते हैं उनका निम्न द्वारों से विचार किया गया है : १. एकशाखिकाद्वार-एक कतार में बने हुए बाड़ के अन्तर वाले घरों में साथ रहने वाले साधु-साध्वियों को परस्पर वार्तालाप, प्रश्नोत्तर आदि के कारण लगने वाले दोष, २. सप्रतिमुखद्वार द्वार-एक दूसरे के द्वार के सामने वाले घर में रहने से लगने वाले दोष, ३. पार्श्वमार्गद्वार-एक-दूसरे के पास के अथवा पीछे के दरवाजे वाले उपाश्रय में रहने से लगने वाले दोष, ४. उच्चनीचद्वार-श्रमणश्रमणियों को एक-दूसरे पर दृष्टि पड़नेवाले उपाश्रय में रहने से लगनेवाले दोष और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त, दृष्टि-दोष से उत्पन्न होनेवाले दस प्रकार के कामविकार के आवेग : १. चिन्ता, २. दर्शनेच्छा, ३. दीर्घ निःश्वास, ४. ज्वर, ५. दाह, ६. भक्तारुचि, ७. मूर्छा, ८. उन्माद, ९ निश्चेष्टा और १०. मरण, ५. धर्म-कथाद्वार-जहाँ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियां एक-दूसरे के पास में रहते हों वहाँ रात्रि के समय धर्मकथा, स्वाध्याय आदि करने की विधि, दुर्भिक्ष आदि कारणों से अकस्मात् एकवगडा-अनेकद्वार वाले ग्रामादि में एक साथ आने का अवसर उपस्थित होने पर उपाश्रय आदि की प्राप्ति का प्रयत्न तथा योग्य उपाश्रय के अभाव में १. गा० २१२५-२२३१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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