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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रतिलेखना, स्वयं निर्ग्रन्थी द्वारा अपने रहने योग्य क्षेत्र की प्रतिलेखना करने का निषेध तथा भड़ौंच में बौद्ध श्रावकों द्वारा किये गए साध्वियों के अपहरण का वर्णन, साध्वियों के रहने योग्य क्षेत्र के गुण, साध्वियों के रहने योग्य वसतिउपाश्रय और उसका स्वामी, साध्वियों के योग्य स्थंडिलभूमि, साध्वियों को उनके रहने योग्य क्षेत्र में ले जाने की विधि, वारकद्वार, भक्तार्थनाविधिद्वार, विधर्मी आदि की ओर से होने वाले उपद्रवों से बचाव, भिक्षा के लिए जाने वाली साध्वियों की संख्या, समूहरूप से भिक्षाचर्या के लिए जाने के कारण और यतनाएँ, साध्वियों के ऋतुबद्ध काल के अतिरिक्त एक क्षेत्र में दो महीने तक रह सकने के कारण । ___ मासकल्पविषयक चतुर्थ सूत्र का विवेचन करते हुए यह बताया गया है कि ग्राम, नगर आदि दुर्ग के भीतर और बाहर बसे हुए हों तो भीतर और बाहर मिलाकर एक क्षेत्र में चार मास तक साध्वियाँ रह सकती हैं । इससे अधिक रहने पर कुछ दोष लगते हैं जिनका प्रायश्चित्त करना पड़ता है। आपवादिक कारणों से अधिक समय तक रहने की अवस्था में विशेष प्रकार की यतनाओं का सेवन करना चाहिए।' स्थविरकल्प और जिनकल्प इन दोनों में कौन प्रधान है ? निष्पादक और निष्पन्न इन दो दृष्टियों से दोनों ही प्रधान हैं। स्थविरकल्पसूत्रार्थग्रहण आदि दृष्टियों से जिनकल्प का निष्पादक है, जबकि जिनकल्प ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि दृष्टियों से निष्पन्न है। इस प्रकार दोनों ही महत्त्वपूर्ण अवस्थाएँ होने के कारण प्रधान-महद्धिक है । इस दृष्टिकोण को विशेष स्पष्ट करने के लिए भाष्यकार ने गुहासिंह, दो स्त्रियों और दो गोवर्गों के दृष्टान्त दिए हैं। वगडाप्रकृतसूत्र : वगडा का अर्थ है परिक्षेप-कोट-परिखा-प्राचीर-चहारदीवारी । एक परिक्षेप और एक द्वार वाले ग्राम, नगर आदि में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को एक साथ नहीं रहना चाहिए । प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने एतत्सम्बन्धी दोषों, प्रायश्चित्तों आदि पर प्रकाश डाला है। इस विवेचन में निम्न बातों का समावेश किया गया है : एक परिक्षेप और एक द्वार वाले क्षेत्र में निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थियों के एक समुदाय के रहते हुए दूसरे समुदाय के आकर रहने पर उसके आचार्य, प्रवर्तिनी आदि को लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, क्षेत्र की प्रतिलेखना के लिए भेजे गए श्रमणों की प्रेरणा से साध्वियों द्वारा अवगृहीत १. गा० २१०६-८. २. गा० २१०९-२१२४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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