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________________ विशेषावश्यकभाष्य १६७ ५. पुण्य-पाप जैसी कोई वस्तु इस संसार में नहीं है। समस्त भवप्रपञ्च स्वभाव से ही होता है। इन पांच प्रकार के विकल्पों में से चौथा विकल्प ही युक्तियुक्त है । पाप व पुण्य दोनों स्वतन्त्र है । एक दुःख का कारण है और दूसरा सुख का । स्वभाववाद आदि युक्ति से बाधित है।' दुःख की प्रकृष्टता तदनुरूप कर्म के प्रकर्ष से सिद्ध होती है । जिस प्रकार सुख के प्रकृष्ट अनुभव का आधार पुण्य-प्रकर्ष है उसी प्रकार दुःख के प्रकृष्ट अनुभव का आधार पाप-प्रकर्ष है । अतः दुःखानुभव का कारण पुण्य का अपकर्ष नहीं अपितु पाप का प्रकर्ष है । इसी प्रकार केवल पापवाद का भी निरसन किया जा सकता है । संकीर्णपक्ष का निरास करते हुए भगवान् महावीर कहते हैं कि कोई भी कर्म पुण्य-पाप उभयरूप नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा कर्म निर्हेतुक है। यह कैसे ? कम-बन्ध का कारण योग है । किसी एक समय का योग या तो शुभ होगा या अशुभ । वह शुभाशुभ उभयरूप नहीं हो सकता। अतः उसका कार्य भी या तो शुभ होगा या अशुभ । वह उभयरूप नहीं हो सकता । जो शुभ कार्य है वही पुण्य है और जो अशुभ कार्य है वही पाप है।' ___पुण्य और पाप का लक्षण बताते हुए आगे कहा गया है कि जो स्वयं शुभ वर्ण, गंध, रस तथा स्पशंयुक्त हो तथा जिसका विपाक भी शुभ हो वह पुण्य है । जो इससे विपरीत है वह पाप है। पुण्य व पाप दोनों पुद्गल हैं। वे मेरु आदि के समान अति स्थूल भी नहीं है और परमाणु के समान अति सूक्ष्म भी नहीं है। __ इस प्रकार भगवान् महावीर ने अचलभ्राता के सन्देह का निवारण किया । उन्होंने भी अपने तीन सौ शिष्यों सहित भगवान् से दीक्षा ग्रहण की। परलोक का सद्भाव: इन सब की दीक्षा का समाचार सुन कर मेतार्य भी महावीर के पास पहुँचे । महावीर ने उन्हें नाम-गोत्र से सम्बोधित करते हुए कहा-मेतार्य ! तुम्हें संशय है कि परलोक है या नहीं ? मैं तुम्हारे संशय का निवारण करूँगा। ___मेतार्य ! तुम यह समझते हो कि मद्यांग और मद के समान भूत और चैतन्य में कोई भेद नहीं है अतः परलोक मानना अनावश्यक है । जब भूतसंयोग के नाश के साथ ही चैतन्य का भी नाश हो जाता है तब परलोक मानने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इसी प्रकार सर्वव्यापी एक ही आत्मा का अस्तित्व मानने पर भी परलोक की सिद्धि नहीं हो सकती। १.गा० १९१२-१९२०. २. गा० १९३१-५. ३.गा० १९४०. ४. गा० १९४८. ५. गा० १९४९-१९५१. ६. गा० १९५२. ७. गा० १९५४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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