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________________ १६६ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अत्यन्त दुःखी तिर्यंच और मनुष्य को ही प्रकृष्ट पापफल का भोक्ता मान लिया जाए तो क्या हर्ज है ? देवों में जैसा सुख का प्रकर्ष है वैसा दुःख का प्रकर्ष तिर्यंच और मनुष्यों में नहीं है अतः उन्हें नारक नहीं मान सकते । ऐसा एक भी तिर्यञ्च अथवा मनुष्य नहीं है जो केवल दुःखी ही हो । अतः प्रकृष्ट पापकर्मफल के भोक्ता के रूप में तिर्यञ्च और मनुष्यों से भिन्न नारकों का अस्तित्व मानना चाहिए।' इस प्रकार जब भगवान् ने अकंपित का संशय दूर कर दिया तब उन्होंने भी अपने साढ़े तीन सौ शिष्यों सहित भगवती दीक्षा अंगीकार कर ली ।२ पुण्य-पाप का सद्भाव : इन सब को दीक्षित हुए जानकर नवें पंडित अचलभ्राता भगवान के पास पहुँचे । भगवान् ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा--अचलभ्राता ! तुम्हें संदेह है कि पुण्य-पाप का सद्भाव है या नहीं ? मैं तुम्हारे संदेह का निवारण करता हूँ। पुण्य-पाप के सम्बन्ध में निम्न विकल्प हैं : ( १ ) केवल पुण्य ही है, पाप नहीं; ( २ ) केवल पाप ही है, पुण्य नहीं; ( ३) पुण्य और पाप एक ही साधारण वस्तु है, भिन्न-भिन्न नहीं; (४) पुण्य और पाप भिन्न-भिन्न हैं; (५) स्वभाव ही सब कुछ है, पुण्य-पाप कुछ नहीं। १. केवल पुण्य का ही सद्भाव है, पाप का सर्वथा अभाव है। जैसे-जैसे पुण्य बढ़ता जाता है वैसे-वैसे सुख की वृद्धि होती जाती है । पुण्य को क्रमशः हानि होने पर सुख की भी क्रमशः हानि होती है । पुण्य का सर्वथा क्षय होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। . २. केवल पाप का ही सद्भाव है, पुण्य का सर्वथा अभाव है। जैसे-जैसे पाप की वृद्धि होती है वैसे-वैसे दुःख बढ़ता है । पाप की क्रमशः हानि होने पर तज्जनित दुःख का भी क्रमशः अभाव होता है। पाप का सर्वथा क्षय होने पर मुक्ति प्राप्त होती है । ३. पुण्य और पाप भिन्न-भिन्न न होकर एक ही साधारण वस्तु के दो भेद है। इस साधारण वस्तु में जब पुण्य की मात्रा बढ़ जाती है तब उसे पुण्य कहा जाता है तथा जब पाप की मात्रा बढ़ जाती है तब उसे पाप कहा जाता है । दूसरे शब्दों में पुण्यांश का अपकर्ष होने पर उसे पाप कहते हैं तथा पापांश का अपकर्ष होने पर उसे पुण्य कहते हैं । ४. पुण्य व पाप दोनों स्वतन्त्र हैं। सुख का कारण पुण्य है और दुःख का कारण पाप है। १. गा० १९००. २. गा० १९०४. ३. गा० १९०५-७. ४. गा० १९०८. ५. गा० १९०९. ६. गा० १९१०. ७. गा० १९११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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