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________________ १६८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इन दोनों हेतुओं का निराकरण करते हुए महावीर कहते हैं कि भूत-इन्द्रिय आदि से भिन्नस्वरूप आत्मा का धर्म चैतन्य है, इस बात की सिद्धि पहले हो चुकी है। अतः आत्मा को स्वतन्त्र द्रव्य मानना चाहिए। इसी प्रकार अनेक आत्माओं का अस्तित्व भी सिद्ध किया जा चुका है। इस लोक से भिन्न देवादि परलोकों का सद्भाव भी मौर्य तथा अकंपित के साथ हुई चर्चा में सिद्ध हो चुका है। अतः परलोक का सद्भाव मानना युक्तिसंगत है। आत्मा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वभावयुक्त है अतः मृत्यु के पश्चात् उसका सद्भाव सिद्ध है । __ इस प्रकार मेतार्य के संशय का निवारण हुआ और उन्होंने अपने तीन सौ शिष्यों सहित भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की। निर्वाण की सिद्धि : ___ इन सब को दीक्षित हुए सुनकर ग्यारहवें पंडित प्रभास के मन में भी इच्छा हुई कि मैं भी महावीर के पास पहुँचूँ । यह सोचकर वे भगवान के पास पहुँचे । भगवान् ने उन्हें उसी प्रकार सम्बोधित करते हुए कहा-प्रभास ! तुम्हारे मन में संशय है कि निर्वाण है अथवा नहीं ? इस विषय में मेरा मत सुनो। __ कोई कहता है कि दीप-निर्वाण के समान जीव का नाश ही निर्वाण अर्थात् मोक्ष है। कोई मानता है कि विद्यमान जीव के राग, द्वेष आदि दुःखों का अन्त हो जाने पर जो एक विशिष्ट अवस्था प्राप्त होती है वही मोक्ष है । इन दोनों में से किसे ठीक कहा जाए ? जीव तथा कर्म का संयोग आकाश के समान अनादि है अतः उसका कभी भी नाश नहीं हो सकता । फिर निर्वाण कैसे माना जाए ?" जिस प्रकार कनक-पाषाण तथा कनक का संयोग अनादि है फिर भी प्रयत्न द्वारा कनक को कनकपाषाण से पृथक् किया जा सकता है उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान और क्रिया द्वारा जीव और कर्म के अनादि संयोग का अन्त होकर जीव कर्म से मुक्त हो सकता है। __जो लोग यह मानते हैं कि दीप-निर्वाण के समान मोक्ष में जीव का भी नाश हो जाता है उनकी मान्यता में दोष है । दीप की अग्नि का भी सर्वथा १. गा० १९५६-८. २. गा० १९७१३. गा० १९७२.४. ४. दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् । जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ -सौन्दरनन्द, १६, २८-९. केवलसंविदर्शनरूपाः सर्वातिदुःखपरिमुक्ताः । मोदन्ते मुक्तिगता जीवाः क्षीणान्तरारिगणाः ॥ ६. गा० १९७५. ७. गा० १९७६. ८. गा० १९७७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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