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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आचार्य जिनभद्र निवृत्तिकुल के थे, इसका प्रमाण उपयुक्त लेखों के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं मिलता । यह निवृत्तिकुल कैसे प्रसिद्ध हुआ, इसके लिए निम्न कथन का आधार लिया जा सकता है : १२० भगवान् महावीर के १७ वें पट्ट पर आचार्य वज्रसेन हुए थे । उन्होंने सोपारक नगर के सेठ जिनदत्त और सेठानी ईश्वरी के चार पुत्रों को दीक्षा दी थी । उनके नाम इस प्रकार थे नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर । आगे जाकर इनके नाम से भिन्न-भिन्न चार प्रकार की परम्पराएं प्रचलित हुई और उनकी नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति तथा विद्याधर कुलों के रूप में प्रसिद्धि हुई । " इन तथ्यों के अतिरिक्त उनके जीवन से संबंधित और कोई विशेष बात नहीं मिलती । हाँ, उनके गुणों का वर्णन अवश्य उपलब्ध होता है । जीतकल्पचूर्णि के कर्ता सिद्धसेन गण अपनी चूर्णि के प्रारम्भ में आचार्य जिनभद्र की स्तुति करते हुए उनके गुणों का इस प्रकार वर्णन करते हैं " जो अनुयोगधर, युगप्रधान प्रधान ज्ञानियों से बहुमत, सर्व श्रुति और शास्त्र में कुशल तथा दर्शन ज्ञानोपयोग के मार्गरक्षक हैं । जिस प्रकार कमल की सुगन्ध के वश में होकर भ्रमर कमल की उपासना करते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूप मकरकंद के पिपासु मुनि जिनके मुखरूप निर्झर से प्रवाहित ज्ञानरूप अमृत का सर्वदा सेवन करते हैं । स्व- समय तथा पर- समय के आगम, लिपि, गणित, छन्द और शब्दशास्त्रों पर किए गए व्याख्यानों से निर्मित जिनका अनुपम यशपटह दशों दिशाओं में बज रहा है । जिन्होंने अपनी अनुपम बुद्धि के प्रभाव से ज्ञान, ज्ञानी, हेतु, प्रमाण तथा गणधरवाद का सविशेष विवेचन विशेषावश्यक में ग्रंथनिबद्ध किया है । जिन्होंने छेदसूत्रों के अर्थ के आधार पर पुरुषविशेष के पृथक्करण के अनुसार प्रायश्चित्त की विधि का विधान - होगा । अतः कालांतर में 'वादी' का भी 'वाचक' का ही पर्यायवाची बन जाना स्वभाविक है । सिद्धसेन जैसे शास्त्रविशारद विद्वान् अपने को 'दिवाकर' कहलाते होंगे अथवा उनके साथियों ने उन्हें 'दिवाकर' की पदवी दी होगी, इसलिए 'वाचक' के पर्याय में 'दिवाकर' को भी स्थान मिल गया । आचार्य जिनभद्र का युग क्षमाश्रमणों का युग रहा होगा, अतः संभव है कि उनके बाद के लेखकों ने उनके लिए 'वाचनाचार्य' के स्थान पर 'क्षमाश्रमण' पद का उल्लेख किया हो । १. जैन गुर्जर कविओ, भाग २, पृ० ६६९. Jain Education International -- गणधरवाद : प्रस्तावना, पृ. ३१. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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