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________________ भाष्य और भाष्यकार ११९ यह सिद्ध होता है कि आचार्य जिनभद्र का संबंध वलभी के अतिरिक्त मथुरा से भी है। ___ डा० उमाकांत प्रेमानंद शाह ने अंकोट्टक-अकोटा गाँव से प्राप्त हुई दो प्रतिमाओं के अध्ययन के आधार पर यह सिद्ध किया है कि ये प्रतिमाएँ ई० सन् ५५० से ६०० तक के काल की हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि इन प्रतिमाओं के लेखों में जिन आचार्य जिनभद्र का नाम है, वे विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता क्षमाश्रमण आचार्य जिनभद्र ही हैं। उनकी वाचना के अनुसार एक मूर्ति के पद्मासन के पिछले भाग में 'ॐ देवाधर्मोयं निवृत्तिकूले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य' ऐसा लेख है और दूसरी मूर्ति के भामंडल में ॐ निवृत्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य' ऐसा लेख है।' इन लेखों से तीन बातें फलित होती हैं : (१) आचार्य जिनभद्र ने इन प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया होगा, (२) उनके कुल का नाम निवृत्तिकुल था और (३) उन्हें वाचनाचार्य कहा जाता था। चूंकि ये मूर्तियाँ अंकोट्टक में मिली है, अतः यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय भड़ौच के आसपास भी जैनों का प्रभाव रहा होगा और आचार्य जिनभद्र ने इस क्षेत्र में भी विहार किया होगा । उपयुक्त उल्लेखों में आचार्य जिनभद्र को क्षमाश्रमण न कहकर वाचनाचार्य इसलिए कहा गया है कि परंपरा के अनुसार वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर तथा वाचक एकार्थक शब्द माने गए हैं । वाचक और वाचनाचार्य भी एकार्थक हैं, अतः वाचनाचार्य और क्षमाश्रमण शब्द वास्तव में एक ही अर्थ के सूचक हैं। इनमें से एक का प्रयोग करने से दूसरे का प्रयोजन भी सिद्ध हो ही जाता है। १. जैन सत्य प्रकाश, अंक १९६. २. वही. ३. पं० श्री दलसुख मालवणिया ने इन शब्दों की मीमांसा इस प्रकार की प्रारंभ में 'वाचक' शब्द शास्त्रविशारद के लिए विशेष प्रचलित था। परन्तु जब वाचकों में क्षमाश्रमणों की संख्या बढ़ती गई तब 'क्षमाश्रमण' शब्द भी वाचक के पर्याय के रूप में प्रसिद्ध हो गया । अथवा 'क्षमाश्रमण' शब्द आवश्यकसूत्र में सामान्य गुरु के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है । अतः संभव है कि शिष्य विद्यागुरु को क्षमाश्रमण के नाम से संबोधित करते रहे हों। इसलिए यह स्वाभाविक है कि 'क्षमाश्रमण' 'वाचक' का पर्याय बन जाए । जैन समाज में जब वादियों की प्रतिष्ठा स्थापित हुई, शास्त्र-वैशारद्य के कारण वाचकों का ही अधिकतर भाग 'वादी' नाम से विख्यात हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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