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________________ भाष्य और भाष्यकार १२१ करने वाले जीतकल्पसूत्र की रचना की है । ऐसे पर-समय के सिद्धांतों में निपुण, संयमशील श्रमणों के मार्ग के अनुगामी और क्षमाश्रमणों में निधानभूत जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को नमस्कार हो।" ___ इस वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि जिनभद्रगणि आगमों के अद्वितीय व्याख्याता थे, 'युगप्रधान' पद के धारक थे, तत्कालीन प्रधान श्रुतधर भी इनका बहुमान करते थे; श्रुति और अन्य शास्त्रों के कुशल विद्वान् थे । जैन परंपरा में जो ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग का विचार किया गया है, उसके ये समर्थक थे । इनकी सेवा में अनेक मुनि ज्ञानाभ्यास करने के लिए सदा उपस्थित रहते थे। भिन्न-भिन्न दर्शनों के शास्त्र, लिपिविद्या, गणितशास्त्र, छंदःशास्त्र, शब्दशास्त्र आदि के ये अनुपम पंडित थे । इन्होंने विशेषावश्यकभाष्य और जीतकल्पसूत्र की रचना की थी । ये पर-सिद्धान्त में निपुण, स्वाचारपालन में प्रवण और सर्व जैन श्रमणों में प्रमुख थे। उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी आचार्य जिनभद्र का बहुमानपूर्वक नामोल्लेख किया है । इनके लिए भाष्यसुधाम्भोधि, भाष्यपीयूषपाथोधि, भगवान् भाष्यकार, दुःषमान्धकारनिमग्नजिनवचनप्रदीपप्रतिम, दलितकुवादिप्रवाद, प्रशस्यभाष्यसस्यकाश्यपीकल्प, त्रिभुवनजनप्रथितप्रवचनोपनिषद्वेदी, सन्देहसन्दोहशैलशृंगभंगदम्भोलि आदि विशेषणों का प्रयोग किया है। ___ आचार्य जिनभद्र के समय के विषय में मुनि श्री जिनविजयजी का मत है कि उनकी मुख्य कृति विशेषावश्यकभाष्य की जैसलमेर स्थित प्रति के अन्त में मिलने वाली दो गाथाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस भाष्य की रचना विक्रम संवत् ६६६ में हुई । वे गाथाएं इस प्रकार हैं : पंच सता इगतीसा सगणिवकालस्स वट्माणस्स । तो चेत्तपुण्णिमाए बुधदिण सातिमि णक्खत्ते ।। रज्जे णु पालणपरे सी (लाइ) च्चम्मि णरवरिन्दम्मि । वलभीणगरीए इम महवि....मि जिणभवणे ॥ मुनि श्री जिनविजयजी ने इन गाथाओं का अर्थ इस प्रकार किया है : शक संवत् ५३१ (विक्रम संवत् ६६६) में वलभी में जिस समय शीलादित्य राज्य करता था उस समय चैत्र शुक्ला पूर्णिमा, बुधवार और स्वाति नक्षत्र में विशेषावश्यकभाष्य की रचना पूर्ण हुई। पं० श्री दलसुख मालवणिया इस मत का विरोध करते हैं। उनकी मान्यता है कि उपयुक्त मत मूल गाथाओं से फलित नहीं होता। उनके मतानुसार इन १ जीतकल्पणि, गा० ५-१० (जोतकल्पसूत्र : प्रस्तावना, पृ० ६-७). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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