SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांगनियुक्ति १०७. धूत नामक षष्ठ अध्ययन के पाँच उद्देशक हैं । प्रथम उद्देशक में निजक अर्थात् स्वजनों के विधूनन का अधिकार है, द्वितीय में कर्मविधूनन का अधिकार है, तृतीय में उपकरण और शरीर के विधूनन की चर्चा है, चतुर्थ में गौरवत्रिक के विधूनन का अधिकार है, पंचम में उपसर्ग और सम्मान के विधूनन की चर्चा है । वस्त्रादि का प्रक्षालन द्रव्यधूत है। अष्टविध कर्मों का क्षय भावधूत है।' सप्तम अध्ययन व्यवच्छिन्न है । अष्टम अध्ययन का नाम विमोक्ष है । इसके आठ उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में असमनोज्ञ के विमोक्ष अर्थात् . परित्याग का उपदेश है। द्वितीय में अकल्पिक के विमोक्ष का विधान है। तृतीय में अंगचेष्टा के प्रति भाषित अथवा आशंकित संशय के निवारण का विधान है। चतुर्थ में वैहानस (उद्बन्धन) तथा गार्द्धपृष्ठ को मरण की उपमा दी गई है। पंचम में ग्लानता तथा भक्तपरिज्ञा का बोध है। षष्ठ में एकत्वभावना और इंगितमरण का बोध है। सप्तम में प्रतिमाओं तथा पादपोपगमन का विचार किया गया है । अष्टम में अनुपूर्वविहारियों का अधिकार है । विमोक्ष का नामादि छः प्रकार का निक्षेप होता है। भावविमोक्ष दो प्रकार का है : देशविमोक्ष और सर्वविमोक्ष । साधु देशविमुक्त हैं, सिद्ध सर्वविमुक्त हैं। नवम अध्ययन का नाम उपधानश्रु त है। इस अध्ययन के अधिकार की चर्चा करते हुए नियुक्तिकार कहते है कि जो तीर्थकर जिस समय उत्पन्न होता है वह उस समय अपने तीर्थ में उपधानश्रुताध्ययन में तपःकर्म का वर्णन करता है। सभी तीर्थकरों का तपःकर्म निरुपसर्ग है किन्तु वर्धमान का तपःकर्म सोपसर्ग है।" इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक का अधिकार चर्या है, दूसरे का शय्या है, तीसरे का परीषह है, चौथे का आतंककालीन चिकित्सा है। वैसे चारों उद्देशकों में तपश्चर्या का अधिकार तो है ही। 'उपधान' और 'श्रुत' दोनों का नामादि भेद से चार प्रकार का निक्षेपहोता है । शय्यादि में होने वाला उपधान द्रव्योपधान है, तप और चारित्रसम्बन्धी उपधान भावोपधान है। जिस प्रकार मलीन वस्त्र उदकादि द्रव्यों से शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार भावोपधान से अष्ट प्रकार के कर्मों की शुद्धि होती है। ४. गा. २७५. १. गा. २४९-२५०. ५. गा. २७६. २. गा. २५२-६. ६. गा. २७९. ३. गा. २५७-९. ७. गा. २८०-२, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy