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________________ १०६ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पर प्रकाश डाला गया है कि केवल दुःख सहने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। श्रमण की क्रिया करने से श्रमण बनता है। चौथे में यह बताया गया है कषायों का क्या कार्य है, पाप से विरति कैसे सम्भव है, संयम से किस प्रकार कर्मों का क्षय होकर मुक्ति प्राप्त होती है ? साथ ही इस अध्ययन में 'शीत" और 'उष्ण' पदों का नामादि निक्षेपों से विचार किया गया है । स्त्रीपरीषह और सत्कारपरोषह-ये दो शीत परीषह हैं। शेष बीस उष्ण परीषह की कोटि में हैं। चतुर्थ अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है। इसके चार उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में सम्यग्दर्शन का अधिकार है, द्वितीय में सम्यग्ज्ञान का अधिकार है, तृतीय में सम्यक्तप की चर्चा है, चतुर्थ में सम्यक्चारित्रका वर्णन है । ये चारों मोक्षांग हैं । मुमुक्षु के लिए इन चारों का पालन आवश्यक है ।२ सम्यक्त्व का भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चार निक्षेपों से विवेचन होता है। भावसम्यक्त्व तीन प्रकार का है : दर्शन, ज्ञान और चारित्र । दर्शन और चारित्र के पुनः तीन-तीन भेद होते हैं : औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । ज्ञान के दो भेद हैं : क्षायोपशमिक और क्षायिक ।३ लोकसार नामक पंचम अध्ययन के छः उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में यह बताया गया है कि हिंसक, विषयारम्भक और एकचर मुनि नहीं हो सकता। दूसरे में यह बताया गया है कि हिंसादि से विरत ही मुनि होता है । तीसरे में इस बात का निर्देश है कि विरत मुनि ही अपरिग्रही होता है। चौथे में यह बताया गया है कि सूत्रार्थापरिनिष्ठित के क्या-क्या प्रत्यपाय होते हैं । पांचवें में साधु के लिए ह्रदोपम होने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है । छठे में उन्मार्गवर्जना पर भार दिया गया है । 'लोक' और 'सार' का भी चार प्रकार का निक्षेप होता है। फलसाधनता ही भावसार है। इससे सिद्धि प्राप्त होती है और फलतः उत्तमसुख का लाभ होता है । इसी बात को दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं : सम्पूर्ण लोक का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है, संयम का सार निर्वाण है।" ___ इसके बाद सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति करते हुए आचार्य कहते हैं कि चर, चर्या और चरण एकार्थक हैं। चर का छ: प्रकार का निक्षेप होता है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र भावचरण के अन्तर्गत हैं। भावचरण प्रशस्त और अप्रशस्त भेद से दो प्रकार का होता है। १. गा. १९७-२१३ २. गा. २१४-५. ३. गा. २१६-८. ४. गा. २३५-२४०. ५. गा. २४४. ६. गा. २४५-६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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