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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (आज्ञाधारी) प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं के आगे घंटे लटक रहे हैं तथा चन्दनकलश, भृङ्गार, आदर्श, थाल, पात्री, धूपदान आदि रखे हुए हैं (१३९) । सिद्धायतन के उत्तर-पूर्व में एक उपपात-सभा है। वहाँ एक जलाशय के पास अभिषेक-सभा है। विजयदेव ने अपनी देवशय्या से उठ, अभिषेक-सभा में स्नान कर, दिव्य वस्त्रालंकार धारण किए। फिर व्यवसाय-सभा में पहुँच अपनी पुस्तक का स्वाध्याय किया (१४०)। फिर नंदा पुष्करिणी में जाकर हस्तपाद का प्रक्षालन किया तथा श्रृंगार में जल भर कर कमल-पुष्पों को तोड़ सिद्धायतन में प्रवेश किया। वहाँ उसने जिनप्रतिमाओं को झाड़-पोंछ कर गंधोदक से स्नान कराया, उन्हें पोंछा, उन पर गोशीर्ष चन्दन का लेप किया और फिर उन्हें देवदूष्य पहनाये। तत्पश्चात् उन पर पुष्प, माला, गंध आदि चढ़ाये और चावलों द्वारा अष्ट मंगल आदि बनाये। फिर पुष्पों की वर्षा की और धूपदान में दीप-धूप जलाकर जिन भगवान् की स्तुति की ( १४२ )। आगे निम्नलिखित विषयों का वर्णन है : उत्तरकुरु ( १४७ ), जंबूवृक्ष ( १५२), जंबूद्वीप में चन्द्र, सूर्य आदि की संख्या (१५३), लवणसमुद्र (१५४-१७३ ), धातकीखंड (१७४), कालोदसमुद्र (१७५), पुष्करवरद्वीप (१७६), मानुषोत्तर पर्वत (१७८), पुष्करोद समुद्र, वरुणवर द्वीप व वरुणवर समुद्र ( १८०), क्षीरवर द्वीप व क्षीरोद समुद्र (१८१), घृतवर द्वीप, घृतवर समुद्र, क्षोदवर द्वीप व क्षोदवर समुद्र' (१८२), नन्दीश्वर द्वीप (१८३), नन्दीश्वरोद समुद्र (१८४), अरुण द्वीप, अरुणोद समुद्र, कुण्डल द्वीप, कुण्डल समुद्र, रुचक द्वीप, रुचक समुद्र इत्यादि ( १८५), लवण आदि समुद्रों के जल का स्वाद ( १८७ ), लवणादि समुद्रों में मत्स्य, कच्छप आदि की संख्या (१८८), चन्द्र-सूर्य आदि का परिवार ( १९३-१९४), चंद्रादि विमानों का आकार और विस्तार ( १९७ ), चन्द्रादि विमानों के वाहक (१९८), वैमानिक देव ( २०७-२२३)। चौथी प्रतिपत्ति: इसमें बताया गया है कि संसारी जीव पाँच प्रकार के होते हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ( २२४-२२५ )। ३. प्रायः यही वर्णन रायपसेणइय (१२९.१३९ ) में भी मिलता है। २. इस समुद्र में पूर्णभद्र और मणिभद्र नाम के देवों के पाये जाने का उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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