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________________ राजप्रश्नीय के घर पहुँचकर केशीकुमार के आगमन का समाचार सुनाया। यह समाचार सुन चित्त अपने आसन से उठा, पादपीठ से नीचे उतरा, पादुकाएँ उतारी और एकशाटिक उत्तरासंग धारण कर, हाथ जोड़ जहाँ केशीकुमार उतरे थे उस दिशा की ओर सात आठ पग चला और फिर प्रणामपूर्वक उनकी स्तुति करने लगा। उद्यान-पालक को प्रीतिदान देकर उसने विदा किया। इसके बाद रथ में सवार होकर वह केशीकुमार के दर्शन के लिये रवाना हो गया ( १५७- १५८ )। धर्मोपदेश श्रवण करने के पश्चात् चित्त सारथी केशीकुमार से कहने लगाभंते ! हमारा राजा पएसी बड़ा अधार्मिक है, इसलिए यदि आप उसे धर्मोपदेश दें तो उसका खुद का भला हो और साथ ही श्रमण, ब्राह्मण, भिक्षुओं और सारे देश का भी कल्याण हो । केशीकुमार ने उत्तर दिया-“हे चित्त ! जो व्यक्ति आराम, उद्यान अथवा उपाश्रय में आये हुए श्रमण या ब्राह्मण के पास नहीं जाता, उसकी वन्दना-पूजा नहीं करता, उपासना नहीं करता, अपनी शंकाओं का समाधान नहीं करता, वह धर्म श्रवण करने का अधिकारी नहीं है। तुम्हारा राजा पएसी हमारे पास नहीं आता और हमारे सामने देखता तक नहीं” ( १५९)। अगले दिन चित्त सारथी राजा पएसी के पास जाकर कहने लगा-"हे देवानुप्रिय ! मैंने जो आपको कंबोज देश के चार घोड़े भेंट में दिये हैं, चलिये आज उनकी परीक्षा करें।" इसके बाद दोनों अश्वरथ में सवार हो परिभ्रमण के लिये निकल पड़े। बहुत देर तक दोनों इधर-उधर घूमते रहे । घूमते-घूमते जब राजा थक गया और उसे प्यास लगी तो चित्त सारथी उसे मृगवन उद्यान में ले गया। वहाँ महती परिषद् को उच्च स्वर से धर्मोपदेश देते हुए केशीकुमार को देखकर राजा विचार करने लगा-"जड़ लोग ही जड़ों की उपासना करते हैं, मूढ़ ही मूढ़ों की उपासना करते हैं, अपंडित ही अपंडितों की उपासना करते हैं, मुंड ही मुंडों की उपासना करते हैं, अज्ञानी लोग ही अज्ञानियों का सन्मान करते हैं, फिर यह कौन जड़, मुंड, मूढ़, अपण्डित और अज्ञानी मनुष्य है जो इतना कान्तिमान् दिखायी दे रहा है ? यह क्या खाता है ? क्या पीता है ? महती परिपद में यह इतने उच्च स्वर से बोल रहा है कि मैं अपनी उद्यानभूमि में स्वच्छंदरूप से पर्यटन भी नहीं कर सकता ! चित्त ने उत्तर दिया : "हे स्वामी ! ये यापित्य केशी नामक कुमारश्रमण हैं। ये चतुनि' के धारक, अधः अवधि से सम्पन्न और अनजीवी हैं (१६०-१६३ )। ३. मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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