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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास तत्पश्चात् राजा पएसी चित्त सारथी के साथ केशीकुमार के समीप पहुँचा और दोनों में वार्तालाप होने लगा
पएसी-भंते ! आप अधः अवधि ज्ञान से सम्पन्न हैं ? आप अन्नजीवी हैं ?
केशी-जैसे रत्नों के व्यापारी राजकर से छुटकारा पाने के लिए किसी से ठीक मार्ग नहीं पूछते, उसी प्रकार हे पएसी ! विनयमार्ग से भ्रष्ट होने के कारण तुम्हें टीक तरह से प्रश्न करना नहीं आता । मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या मुझे देखकर तुम्हारे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ था कि जड़ लोग ही जड़ों की उपासना करते हैं, आदि ? - पएसी-हाँ भन्ते ! यह सच है। लेकिन मेरे मन के विचार को आपने कैसे जान लिया ?
केशी-मैं आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय ज्ञान से संपन्न हूँ इसलिए मैंने तुम्हारे मन के विचार को जान लिया ( १६४-१६५)।।
पएसी-मैं पूछना चाहता हूँ, क्या श्रमण-निर्ग्रन्थ जीव और शरीर को जुदाजुदा स्वीकार करते हैं ? ___केशी-हाँ, हमलोग जीव और शरीर को जुदा-जुदा मानते हैं । जीव और शरीर की भिन्नता-पहली युक्ति :
(क) पएसी-देखिये भंते ! इस नगरी में मेरा एक दादा रहता था। वह बड़ा अधार्मिक था। प्रजा का टीक तरह पालन न करने के कारण आपके मतानुसार वह नरक में उत्पन्न हुआ होगा। मैं अपने दादा का बड़ा लाडला था और मुझे देखकर वे खुशी से फूले न सभाते थे। ऐसी हालत में यदि मेरे दादा नरक में से आकर मुझसे कहें कि हे मेरे पोते ! पूर्व जन्म में मैं तेरा दादा था और अधार्मिक कर्मों से पाप का संचय कर मैं नरक में पैदा हुआ हूँ, इसलिए तू पाप कमाँ को त्याग दे, अन्यथा तू भी नरक में उत्पन्न होगा तो मैं समझू कि जीव
और शरीर भिन्न-भिन्न हैं। लेकिन अभी तक तो उन्होंने मुझसे आकर कुछ कहा नहीं, इसलिए मैं समझता हूँ कि उनका जीव उनके शरीर के साथ ही नष्ट हो गया है। ___केशी-हे पएसी ! यदि कोई कामुक पुरुष तुम्हारी रानी के साथ विषयभोग का सेवन करे तो तुम उसे क्या दण्ड दोगे ? ____पएसी-मैं उसके हाथ-पाँव कटवाकर उसे शूली पर चढ़ा दूंगा अथवा एक ही चोट में उसके प्राण ले लूँगा।
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