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राजप्रश्नीय
आगमन का समाचार सुन नगरवासी परस्पर कहने लगे-हे देवानुप्रिय ! चलो, हमलोग भी कुमारश्रमण केशी को वन्दना करने चले । श्रावस्ती में महान् कोलाहल सुनकर चित्त सारथी के मन में विचार उत्पन्न हुआ--क्या आज नगरी में कोई इन्द्र', स्कंद, रुद्र, मुकुंद, शिव, वैश्रमण, नाग, यक्ष, भूत, स्तूप, चैत्य, वृक्ष, गिरि, गुफा, कप, नदी, सरोवर और सागर का उत्सव मनाया जा रहा है जो उग्र, भोग, राजन्य, इक्ष्वाकु, ज्ञात, कौरव्य, ब्राह्मण आदि सब लोग नहा-धो
और वस्त्राभूषणों से सज्जित हो, घोड़े, हाथी आदि पर सवार होकर जा रहे हैं ? कंचुकी पुरुष को बुलाकर कोलाहल का कारण पूछने पर चित्त को विदित हुआ कि केशीकुमार चैत्य कोष्ठ में पधारे हैं और नगरवासी उन्हें वन्दना करने जा रहे हैं ( १४७-१४८)।
यह सुनकर चित्त सारथी ने कौटुंबिक पुरुष को बुला उसे अपना अश्वरथ सज्जित करने का आदेश दिया। तत्पश्चात् स्नान आदि कर और वस्त्राभूषणों से सज्जित हो, अपने नौकरों-चाकरों के साथ वह कोष्ठक चैत्य में पहुँचा। उसने केशीकुमार की प्रदक्षिणा की, उन्हें नमस्कार किया और विनयपूर्वक उनकी पर्युपासना में लीन हो गया । केशीकुमार ने परिषद् के सदस्यों को चातुर्याम धर्म-- सर्वप्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण और बहिद्धादानविरमण का उपदेश दिया (१४९)।
चित्त सारथी केशीकुमार का उपदेश सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। केशीकुमार को नमस्कार कर वह कहने लगा--भंते ! निर्ग्रन्थ प्रवचन में मैं विश्वास करता
करते थे और चातुर्याम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह ) का उपदेश देते थे, जब कि महावीर अचेल धर्म को मानते थे और पंच महाव्रत का उपदेश देते थे। पाश्र्वनाथ के अनुयायी कुमारश्रमण केशी और महावीर के अनुयायी गौतम इन्द्रभूति के महत्वपूर्ण वार्तालाप का उल्लेख
उत्तराध्ययन सूत्र में मिलता है। ५. निशीथसूत्र (१९, ११-१२ तथा भाप्य) में इन्द्र, स्कन्द, यक्ष और भूत
इनको महामह बताया गया है। ये त्यौहार क्रमशः आषाढ़, आश्विन, कार्तिक और चैत्र की पूर्णमासी के दिन मनाये जाते थे। विशेष जानकारी के लिए देखिये-जगदीशचन्द्र जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ०
४३० आदि। २. स्थानांग की टीका ( पृ० २०२ ) में बहिद्वा का अर्थ मैथुन और आदान
का अर्थ परिग्रह किया है।
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