________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
एक बार की बात है। राजा पएसी जितशत्रु को कोई भेंट भेजना चाहता था । उसने चित्त सारथी को बुलाकर भेंट ले जाने को कहा और उसे आदेश दिया कि वह जितशत्रु के साथ कुछ दिनों श्रावस्ती में रहकर उसके राजकाज की देखभाल करे। भेंट ग्रहण कर चित्त अपने घर आया और उसने कौटुम्बिक पुरुष को बुलाकर चार घंटों वाला अश्वरथ' तैयार करने का आदेश दिया। इस बीच में चित्त ने स्नान, बलिकर्म, कौतुक और मंगल आदि कृत्य संपन्न किये, कवच धारण किया, तुणीर बाँधा, गले में हार पहना, राजपट्ट धारण किया और अस्त्रशस्त्रों से सज्जित हो रथ में सवार हुआ। अनेक हथियारबन्द योद्धाओं से परिवृत्त हो वह श्रावस्ती की ओर चल पड़ा।
श्रावस्ती पहुँचकर चित्त सारथी जितशत्रु राजा की बाह्य उपस्थानशाला ( दरबार आम ) में पहुँचा और वहाँ उसने घोड़े खोलकर रथ को खड़ा किया । फिर वह भेंट लेकर जितशत्रु की अंतरंग उपस्थानशाला (दरबार खास) में पहुँचा। उसने जितशत्रु को प्रणाम किया, बधाई दी और फिर राजा पएसी का दिया हुआ नजराना उसके समक्ष रख दिया । नजराना स्वीकार कर जितशत्रु ने चित्त सारथी का आदर-सत्कार किया और उसके ठहरने का यथोचित प्रबन्ध कर दिया। चित्त गीत, नृत्य और नाटक आदि द्वारा समय यापन करता हुआ आनन्दपूर्वक श्रावस्ती में रहने लगा (१४६ )।
उस समय चतुर्दशपूर्वधारी, पाश्वापत्य, केशी नामक कुमार श्रमण अपने अनेक शिष्यों से परिवृत्त हो श्रावस्ती के कोष्ठ नामक चैत्य में विहार कर रहे थे। उनके
महेट, जिला गोंडा) थी जिसका दूसरा नाम कुणाल नगरी भी था । श्रावस्ती और साकेत के बीच सात योजन (१ योजन =५ मील) का
अन्तर था। १. यह रथ छत्र, ध्वजा, घंटा, पताका, तोरण, नंदिघोष और क्षुद्र घंटियों
से युक्त था, हिमालय में पैदा होनेवाली तिनिस की लकड़ी से बना हुआ था, सुवर्ग से खचित था, इसके चक्के का घेरा (नेमि) लोहे का बना था और इसका धुरा मजबूत था। इस रथ में श्रेष्ट घोड़े जुड़े थे तथा तूणीर, कवच और आयुध आदि से यह सम्पन्न था, देखिये-उववाइय सूत्र ३१, पृ० १३२; जीवाजीवाभिगम, पृ० १८५, १९२; जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति,
पृ० २१०. २. जैन सूत्रों में महावीर के माता-पिता को पार्श्वनाथ की परम्परा का
अनुयायी कहा गया है। पार्श्वनाथ परम्परा के अनुयायी श्रमग पाश्र्वापत्य (पासावच्चिज) नाम से कहे जाते थे। पार्श्वनाथ सचेल धर्म को स्वीकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org