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राजप्रश्नीय ...
नाट्यविधि:
तत्पश्चात् सूर्याभदेव ने देवकुमार और देवकुमारियों को आदेश दिया कि वे गौतम आदि निर्ग्रन्थ श्रमणों के समक्ष बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि का प्रदर्शन करें। आदेश पाते ही देवकुमार और देवकुमारियाँ गौतम आदि श्रमणों के समक्ष एक पंक्ति में खड़े हो गये। वे सब एक साथ नीचे झुके और सबने एक ही साथ अपना मस्तक ऊपर उठाया। फिर सब जगह फैल कर उन्होंने अपना गीत-नृत्य आरम्भ कर दिया (६१-२)।
इस प्रसंग पर अभिनीत बत्तीस प्रकार की नाट्यविधियाँ इस प्रकार हैं :१--स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य, और दर्पण के दिव्य अभिनय।
२-आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमानव, वर्धमानक ( सरावसंपुट), मत्स्याण्डक, मकराण्डक', जार, मार', पुष्पावलि, पद्मपत्र, सागरतरंग, वसन्तलता और पद्मलता के चित्र का अभिनय।
३-ईहामृग, वृषभ, घोड़ा, नर, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु, शरभ, चमर, कुंजर, वनलता, पद्मलता के चित्र का अभिनय ।।
४-एकतोवक्र, द्विधावक्र, एकतश्चक्रवाल, द्विधाचक्रवाल, चक्रार्थ, चक्रवाल का अभिनय ।
झल्लरी, दुंदुभि, भेरी आदि के लक्षण बताये हैं ), रामायण ५,११,३८ आदि, महाभारत ७,८२,४. टीकाकार के अनुसार इन नाट्यविधियों का उल्लेख चतुर्दश पूर्वी के अन्तर्गत नाट्यविधि नामक प्राभृत में मिलता है, लेकिन यह प्राभृत आजकल विच्छिन्न हो गया है। स्वस्तिक, वर्धमान और नंद्यावर्त का उल्लेख महाभारत (७,८२,२०) में उपलब्ध होता है। अंगुत्तरनिकाय में नन्दियावत्त का अर्थ मछली किया गया है (देखिये-मलालसेकर, डिक्शनरी ऑफ पालि प्रॉपर नेम्स, भाग २, पृ० २९)। भरत के नाट्य
शास्त्र में स्वस्तिक चौथा और वर्धमानक तेरहवाँ नाट्य बताया गया है। २. भरत के नाट्यशास्त्र में मकर का उल्लेख है। ३. जार-मार की टीका करते हुए मलयगिरि ने लिखा है--सम्यग्मणिलक्षण- वेदिनौ लोकाद्वेदितव्यो-जीवाजीवाभिगम-टीका, पृ० १८९. ४. भरत के नाट्यशास्त्र में पद्म । ५ भरत के नाट्यशास्त्र में गंजवंत ।
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