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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास • ( भेर्याकारा संकटमुखी देवातोद्य'), मुरज ( महाप्रमाण मर्दळ ), मृदंग (लघु
मर्दल), नंदी मृदंग ( एकतः संकीर्णः अन्यत्र विस्तृतो मुरजविशेषः), आलिंग (मुरज वाद्यविशेष'), कुस्तुंब (चौवनद्धपुटो वाद्यविशेषः), गोमुखी, मर्दल ( उभयतः सम), वीणा, विपंची (त्रितंत्री वीणा ), वल्लकी ( सामान्यतो वीणा), महती, कच्छभी (भारती वीणा), चित्रवीणा, बद्धीस, सुघोषा, नंदिघोषा, भ्रामरी, षड्भ्रामरी, वरवादनी ( सप्ततंत्री वीणा), तूणा, तुम्बवीणा, ( तुंबयुक्त वीणा), आमोद, झंझा, नकुल, मुकुन्द ( मुरज वाद्यविशेष ), हुडुक्का, विचिक्की, करटा, डिडिम, किणित, कडंब, दर्दर, दर्दरिका ( यस्य चतुर्भिश्चरणैरवस्थानं भुवि स गोधाचर्मावनद्धो, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, १०१), कलशिका, महुया, तल, ताल, कांस्यताल, रिंगिसिका (रिंगिसिगिका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति), लत्तिया, मगरिका, शिशुभारिका, वंश, वेणु, वाली (तूणविशेषः, स हि मुखे दत्वा वाद्यते ), परिली और बद्धक ( पिरलीबद्धको तृणरूपवाद्यविशेषौ, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, पृ० १०१) (५९)। १. मंगल और विजय सूचक होती है तथा देवालयों में बजाई जाती है,
वही ११४६. २. गोपुच्छाकृति मृदंग जो एक सिरे पर चौड़ा और दूसरे पर संकड़ा होता
था-वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरित पृ०, ६७. ३. देखिये-संगीतरत्नाकर, १०३४ आदि। ४. इसे आवज अथवा स्कंधावज भी कहा जाता है, वही १०७५. ५. देखिये-वही १०७६ आदि। ६. सूत्र ६४ भी देखना चाहिए। वाद्यों के संबंध में काफी गड़बड़ी हुई
मालूम देती है। मूल पाठ में इनकी संख्या ४९ कही गई है, लेकिन वास्तविक संख्या ५९ है। बहुत से वाद्यों का स्वरूप अस्पष्ट है, स्वयं टीकाकार ने परिभाषा नहीं दी है। टीकाकार के अनुसार वेणु, पिरली और बद्धग वाद्यों का वंश नामक वाद्य में अन्तर्भाव हो जाता है। बारह तूर्यों के नाम-भंभा, मुकुंद, मद्दल, कडंब, झल्लरी, हुडुक्क, कांस्यताल, काहल, तलिमा, वंस, संख और पणव । वाद्यों के लिए देखिये-बृहत्कल्पभाष्यपीठिका (पृ. १२), भगवती (५,४), जीवाभिगम, ३, पृ० १४५ अ, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २, पृ० १०० भादि, अनुयोगद्वार सूत्र १२७, निशीथसूत्र १७, १३५-३८, सूयगडंग (४,२,७) तथा संगीतरत्नाकर,अध्याय ६ ( यहाँ चित्रा, विपंची, भंग, शंख, पटह, मर्दल, हुडुक्का, करटा, ढका,
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