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________________ राजप्रश्नीय ४१ लौट गये। राजा सेय और रानी धारिणी ने भी महावीर के धर्मोपदेश की सराहना की (११)। सूर्याभदेव: उस समय सूर्याभ नामक देव दिव्य भोगों का उपभोग करता हुआ सौधर्म स्वर्ग में निवास करता था। उसने अपने दिव्य ज्ञान से आमलकप्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में संयम और तपपूर्वक विहार करते हुए महावीर को देखा । वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ, हर्षोत्कम्प से उसके कटक ( कंकण ), बाहुबन्द, बाजूचन्द, मुकुट और कुण्डल चंचल हो उठे। वह वेग से अपने सिंहासन से उठा, पादपीठ से उतरा और उसने पादुकाएँ उतारी। तत्पश्चात् एकशाटिक उत्तरासंग धारण कर तीर्थंकर के अभिमुख सात-आठ पग चला। फिर बायें घुटने को मोड़, दाहिने को जमीन पर रख, तीन बार मस्तक को जमीन पर लगाया। फिर तनिक ऊपर उठकर कंकण और बाहुबन्दों से स्तब्ध हुई भुजाओं को एकत्र कर, मस्तक पर अंजलि रख, अरिहंतों और श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार कर अपने आसन पर पूर्वाभिमुख हो बैठ गया ( १२-१५)। - सूर्याभदेव के मन में विचार उत्पन्न हुआ-"भगवन्तों के नाम गोत्र का श्रवण भी महाफलदायक है, तो फिर उनके पास पहुँचकर उनकी वन्दना करना, कुशलवार्ता पूछना और उनकी पर्युपासना करना कितना फलदायक न होगा? किसी आर्य पुरुष के धार्मिक वचनों को श्रवण करने का अवसर मिलना कितना दुर्लभ है, फिर यदि उसके कल्याणकारी उपदेश सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो तो कहना ही क्या ?" यह सोचकर सूर्याभ ने महावीर की वन्दना और उपासना के लिये आमलकप्पा जाने का निश्चय किया। आभियोगिक देवों को बुलाकर उसने आदेश दिया-“हे देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान् महावीर आमलकप्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में पधारे हैं। तुम वहाँ जाकर उनकी प्रदक्षिणा कर, उनकी वन्दना कर, अपने नाम-गोत्र से उन्हें सूचित करो। तत्पश्चात् महावीर के आसपास की जमीन पर पड़े हुए कूड़े-कचरे को उठा कर एक तरफ फेंक दो। फिर सुगंधित जल से छिड़काव करो, पुष्पों की वर्षा करो और उस प्रदेश को अगर और धूप आदि से महका दो (१६.१८)।" . आभियोगिक देवों ने सूर्याभदेव की आज्ञा को विनयपूर्वक शिरोधार्य किया और उत्तर-पूर्व दिशा की ओर त्वरित गति से प्रस्थान किया। वे आमलकप्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में आये और महावीर की प्रदक्षिणा कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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