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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जब महावीर आमलकप्पा नगरी में पधारे तो नगर में कोलाहल मच गया और लोग कहने लगे : "हे देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान् महावीर नगरी में पधारे हैं । जब उनके नाम-गोत्र का श्रवण करना भी महाफलदायक है तो फिर उनके पास पहुँचकर उनकी वंदना करना, कुशलवार्ता पूछना ओर उनकी पर्युपासना करना कितना फलदायक होगा? चलो, हे देवानुप्रियो ! हम महावीर की वंदना करें, उनका सत्कार करें और विनयपूर्वक उनकी उपासना करें । इससे हमें इस लोक और परलोक में सुख की प्राप्ति होगी।" यह सोचकर अनेक उग्र, उग्रपुत्र, भोग, भोगपुत्र, राजन्य, क्षत्रिय, क्षत्रियपुत्र, भट, भटपुत्र, योधा, योधापुत्र, प्रशास्ता, मल्लकी, मल्लकीपुत्र, लिच्छवी, लिच्छवीपुत्र तथा अनेक माण्डलिक राजा, युवराज, कोतवाल ( तलवर ), सीमाप्रांत के अधिपति, परिवार के स्वामी, इभ्य (धनपति), श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह आदि-कोई वन्दन के लिए, कोई पूजन के लिए, कोई कौतूइल शान्त करने के लिए, कोई अर्थ निर्णय करने के लिए, कोई अश्रुत बात को सुनने के लिए, कोई श्रुत बात का निश्चय करने के लिए, और कोई अर्थ, हेतु और कारणों को जानने के लिए-- आम्रशालवन चैत्य की ओर रवाना हुए। किसी ने कहा, हम मुण्डित होकर श्रमण-प्रव्रज्या लेंगे और किसी ने कहा, हम पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतो का पालन कर गृहीधर्म धारण करेंगे । तत्पश्चात् लोग स्नान आदि कर, अपने शरीर को चन्दन से चर्चित कर, सुन्दर वस्त्र और मालाएँ पहन, मणि, सुवर्ण, तथा हार, अर्धहार, तिसरय ( तीनलड़ी का हार ), पालंब ( गले का आभूषण), और कटिसूत्र आदि आभूषण धारण कर महावीर के दर्शन के लिए चल पड़े। कोई घोड़े, कोई हाथी, कोई रथ तथा कोई पालकी में सवार होकर और कोई पैदल चलकर आम्रशालवन चैत्य में पहुंचा। श्रमण भगवान् महावीर को दूर से देखकर लोग अपने अपने यानों और वाहनों से उतरे और भगवान की तीन बार प्रदक्षिणा कर, उन्हें विनय से हाथ जोड़, उनकी उपासना में लीन हो गये। राजा सेय और रानी धारिणी भी आम्रशालवन में पहुँच भगवान् की प्रदक्षिणा कर, विनय से हाथ जोड़ उनकी उपासना में लग गये। उपस्थित जनसमुदाय को महावीर ने धर्मोपदेश दिया (१०)। महावीर का धर्म श्रवण कर परिषद् के लोग अत्यन्त प्रसन्न भाव से कहने लगे : "भंते ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन का जैसा सुन्दर प्रतिपादन आपने किया है, वैसा अन्य कोई श्रमण अथवा ब्राह्मण नहीं करता।" फिर सब लोग अपने अपने घर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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