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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (कमण्डलु), कंचणिया (रुद्राक्ष की माला), करोडिया (मिट्टी का बर्तन ), भिसिया ( आसन ), छण्णालय (तिपाई ), अंकुश, केसरिया ( साफ करने का वस्त्र ), पवित्तय ( अंगूठी ), गणेत्तिया ( हाथ का आभूषण ), छतरी, जूते, पादुका और गेरुए कपड़ों को एकांत में रख, गंगा में प्रवेश कर, बालुका पर पर्यक आसन से पूर्वाभिमुख बैठ, सल्लेखनापूर्वक भक्तपान का त्याग कर, वृक्ष के समान निश्चल और अकांक्षा रहित हो जीवन का परित्याग करें। यह निश्चय कर अरिहंतों, श्रमण भगवान् महावीर और धर्माचार्य अम्मड परिव्राजक को नमस्कार कर वे कहने लगे-"पहले हमने अम्मड परिव्राजक के समीप यावजीवन स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन और स्थूल परिग्रह का त्याग किया था; अब हम महावीर को साक्षी करके समस्त प्राणातिपात आदि पापों का, सर्व क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का, सर्व अशन, पान आदि मनोज्ञ पदार्थों का त्याग करते हैं; हमें शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा, दंशमशक आदि परीषह बाधा न दें।" यह कहकर उन्होंने सल्लेखनापूर्वक शरीर का त्याग किया (३९)। अम्मड परिव्राजक: अम्मड परिव्राजक कंपिल्लपुर नगर में केवल सौ घरों से आहार लेता था, और सौ घरों में वसति ग्रहण करता था। उसने छठ्ठमछठ तपोकर्म से सूर्य के अभिमुख ऊर्ध्व बाह करके आतापना भूमि से आतापना करते हुए अवधिज्ञान प्राप्त किया । वह जल में प्रवेश नहीं करता, गाड़ी आदि में नहीं बैठता, गंगा की मिट्टी के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का शरीर में लेप नहीं करता। अपने लिए बनाया हुआ आधाकर्म, औद्देशिक आदि भोजन ग्रहण नहीं करता । कांतार-भक्त, दुर्भिक्ष-भक्त, प्राघूर्णक-भक्त ( अतिथियों के लिए बनाया भोजन), तथा दुर्दिन में बनाया हुआ भोजन ग्रहण नहीं करता। अपध्यान, प्रमादचर्या, हिंसाप्रधान और पाप कर्म का उपदेश नहीं देता। वह कीचड़ रहित बहता हुआ, छाना हुआ, मगध देश के आधे आढक के प्रमाण में स्वच्छ जल केवल पीने के लिए ग्रहण करता; थाली, चम्मच धोने अथवा स्नान आदि करने के लिए नहीं । अहंत और अहंत-चैत्यों को छोड़कर शाक्य आदि किसी और धर्मगुरु को. नमस्कार नहीं करता। सल्लेखनापूर्वक कालधर्म को प्राप्त कर वह ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। १. अमरसूरि का अम्बडचरित्र भी देखना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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