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________________ २५ औपपातिक स्नान का उपदेश देते थे। इनका कहना था कि जो पदार्थ अशुचि है वह मिट्टी से धोने से पवित्र हो जाता है और हम निर्मल आचार और निरवद्य व्यवहार से युक्त होकर अभिषेक जल से अपने को पवित्र कर स्वर्ग प्राप्त करेंगे। ये परिव्राजक कूप, तालाब, नदी, वापी, पुष्करिणी, दीर्घिका, गुंजालिया, सर और सागर में प्रवेश नहीं करते; गाड़ी, पालकी आदि में नहीं बैठते; घोड़ा, हाथी, ऊँट, बैल, भैंस और गधे पर सवार नहीं होते; नट, मागध आदि का खेल नहीं देखते; हरित् बस्तु का लेप और उन्मूलन आदि नहीं करते; भक्तकथा, देशकथा, राजकथा, और चोरकथा नहीं कहते और अनर्थदण्ड नहीं करते । वे लोहे, राँगे, ताँबे, जस्ते, सीसे, चांदी व सोने के तथा अन्य बहुमूल्य पात्रों को धारण नहीं करते; केवल तुंबी, लकड़ी या मिट्टी के पात्र ही रखते। भांति-भांति के रंग-बिरंगे वस्त्र नहीं पहनते, केवल गेरुए वस्त्र (धाउरत्त) ही पहनते । हार, अर्धहार आदि कीमती आभूषण नहीं पहनते, केवल एक ताँबे की अंगूठी पहनते । मालाएँ धारण नहीं करते, केवल एक कर्णपूर ही पहनते । अगुरु, चन्दन और कुंकुम से अपने शरीर पर लेप नहीं कर सकते, केवल गंगा की मिट्टी का ही उपयोग कर सकते। ये कीचड़ रहित बहता हुआ, छाना हुआ अथवा किसी के द्वारा दिया हुआ, मगध देश के एक प्रस्थ जितना स्वच्छ जल केवल पीने के लिए ग्रहण करते, थाली, चम्मच धोने अथवा स्नान आदि करने के लिए नहीं। ये परिव्राजक मरकर ब्रह्मलोक में उत्पन्न होते ( ३८)। अम्मड परिव्राजक के सात शिष्य : एक बार अम्मड परिव्राजक के सात शिष्यों ने ग्रीष्मकाल में ज्येष्ठ मास में गंगा के किनारे-किनारे कंपिल्लपुर नगर से पुरिमताल की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में एक बड़ा जंगल पड़ता था। परिव्राजकों का पूर्वगृहीत जल समाप्त हो जाने पर उन्हें जोर की प्यास लगी और पास में किसी के दिखाई न देने पर उन्होंने सोचा कि किसी जलदाता को ढूंढ़ना चाहिए। लेकिन वहाँ कोई जलदाता दिखायी न दिया । उन्होंने सोचा कि यदि हम आपत्काल में बिना दिया जल ग्रहण करेंगे तो तपभ्रष्ट हो जायेंगे। ऐसी दशा में यही बेहतर है कि हम अपने त्रिदंड, कुंडिका १. २ असई = १ पसई, २ पसई -१ सेइया, ४ सेइया= १ कुलभ, ४ कुलअ= १ प्रस्थ, ४ प्रस्थ = १ आढक, ४ आढक =१ द्रोण । २. कंपिल, फर्रुखाबाद जिला, जो उत्तरप्रदेश में है। ३. यह स्थान अयोध्या का शाखानगर था ( आवश्यकनियुक्ति, ३४२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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