SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आय भी नामादि भेद से चार प्रकार की है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र का लाभ प्रशस्त आय है, जबकि क्रोधादि की प्राप्ति अप्रशस्त आय है । क्षपणा के भी चार भेद हैं : नामक्षपणा, स्थापनाक्षपणा, द्रव्यक्षपणा और भावक्षपणा । इनका विवेचन भी पूर्ववत् कर लेना चाहिए । क्षपणा कर्म की निर्जरा का कारण है । ३४० ओघनिष्पन्न निक्षेप के उपर्युक्त विवेचन के बाद सूत्रकार नामनिष्पन्न निक्षेप का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि जिस वस्तु का नामविशेष निष्पन्न हो चुका हो उसे नामनिष्पन्न निक्षेप कहते हैं जैसे सामायिक । इसके भी नामादि चार भेद हैं । भावसामायिक का व्याख्यान करते हुए सूत्रकार ने सामायिक करनेवाले श्रमण का आदर्श रूप प्रस्तुत करने के लिए छ: गाथाएं दी हैं जिनमें बताया गया है कि जिसकी आत्मा सब प्रकार के सावद्य व्यापार से निवृत्त होकर मूलगुणरूप संयम, उत्तरगुणरूप नियम तथा तप आदि में लीन है उसी को सामायिक का लाभ होता है । जो त्रस और स्थावर ( चर और अचर ) सब प्रकार के प्राणियों को आत्मवत् देखता है एवं उनके प्रति समान भाव रखता है वही सामायिक का सच्चा अधिकारी है । जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही अन्य प्राणियों को भी दुःख अच्छा नहीं लगता है, ऐसा समझ कर जो न स्वयं किसी जीव का हनन करता है, न दूसरों से किसी का श्रमण है जिसका किसी से द्वेष नहीं है अपितु सब के साथ प्रीतिभाव है वही श्रमण है । जिसे सर्प, पर्वत, अग्नि, सागर, आकाश, वृक्ष, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य, पवन आदि की उपमाएं दी जाती हैं वही श्रमण है । जिसका मन शुद्ध है, जो भावना से भी पाप नहीं करता अर्थात् जिसकी पाप करने की इच्छा तक नहीं होती, जो स्वजन और सामान्यजन को समान भाव से देखता है, जिसका मान और अपमान में समभाव है वही श्रमण है । हनन करवाता है वह 'करेमि भंते ! सामाइयं-' आदि पदों का नामादि भेदपूर्वक व्याख्यान करना सूत्रालापनिष्पन्न निक्षेप कहलाता है। यहां तक द्वितीय अनुयोगद्वार निक्षेप की चर्चा है । अनुगमद्वार : अनुगम ( सूत्रानुकूल व्याख्यान ) नामक तृतीय अनुयोगद्वार का विवेचन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि अनुगम दो प्रकार का है : सूत्रानुगम और निर्युक्त्यनुगम । निर्युक्त्यनुगम के तीन भेद हैं : निक्षेप-निर्युक्त्यनुगम, उपोद्घातनियुक्त्यनुगम और सूत्रस्पर्शिक-निर्युक्त्मनुगम । निक्षेप निर्युक्यनुगम का प्रतिपादन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy