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अनुयोगद्वार
समवतार :
समवतार के छः भेद हैं: नामसमवतार, स्थापनासमवतार, द्रव्यसमवतार, 'क्षेत्र समवतार, कालसमवतार और भावसमवतार । द्रव्यों का स्वगुण की अपेक्षा से -आत्मभाव में समवतीर्ण होना, व्यवहारनय की अपेक्षा से पररूप में समवतीर्ण होना आदि द्रव्यसमवतार के उदाहरण हैं । इसी प्रकार क्षेत्र आदि का भी स्वरूप, पररूप और उभयरूप में समवतार होता है । भावसमवतार के दो भेद हैं : आत्मभावमवतार और तदुभयभावसमवतार । भाव का अपने ही स्वरूप में समवतीर्ण होना आत्मभावसमवतार कहलाता है । जैसे क्रोध का क्रोधरूप में समवतीर्ण होना । भाव का स्वरूप तथा पररूप दोनों में समवतार होना तदुभयभावसमवतार कहलाता है । उदाहरणार्थ क्रोध का क्रोधरूप में समवतार होने के साथ ही साथ मानरूप में भी समवतार होता है ।"
भावसमवतार के साथ समवतारद्वार समाप्त होता है और साथ ही साथ उपक्रम नामक प्रथम अनुयोगद्वार भी पूरा होता है ।
निक्षेपद्वार :
निक्षेप नामक द्वितीय अनुयोगद्वार का व्याख्यान करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि निक्षेप तीन प्रकार का होता है : ओघनिष्पन्न निक्षेप, नामनिष्पन्न निक्षेप और सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप । इनके भेद-प्रभेद इस प्रकार हैं :
ओघनिष्पन्न निक्षेप चार प्रकार का है : अध्ययन, अक्षीण, आय और
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अपणा ।
अध्ययन के चार भेद हैं: नामाध्ययन, स्थापनाध्ययन, द्रव्याध्ययन और
भावाध्ययन |
अक्षीण भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव भेद से चार प्रकार का है । इनमें से भावाक्षीणता के दो भेद हैं : आगमतः भावाक्षीणता और नोआगमतः भावाक्षीणता । ''अक्षीण' शब्द के अर्थ को उपयोगपूर्वक जानना आगमतः भावाक्षीणता है । नोआगमतः भावाक्षीण उसे कहते हैं जो व्यय करने से जरा भी क्षीण न हो । जैसे किसी एक दीपक से सैकड़ों दूसरे दीपक प्रदीप्त किये जाते हैं किन्तु इससे वह दीपक नष्ट नहीं होता वैसे ही आचार्य श्रुत का पठन-पाठन करते हुए स्वयं दीप्त रहते हैं तथा दूसरों को भी दीप्त संक्षेप में श्रुत का क्षीण न होना, यही भावाक्षीणता है ।
सू. ५-९. २. सू. १-१७ ( निक्षेपाधिकार ).
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