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मनुयोगद्वार
जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग एवं उत्कृष्ट १००० धनुष के बराबर होती है। इस प्रकार उत्सेधांगुल का प्रमाण एक स्थायी, निश्चित एवं स्थिर नाप है। उत्सेधांगुल से १००० गुना अधिक प्रमाणांगुल होता है। उत्सेधांगुल की भाँति इसका प्रमाण भी निश्चित है। अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव एवं उनके पुत्र चक्रवर्ती भरत के अंगुल को भी प्रमाणांगुल कहते हैं। अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् वर्धमान के एक अंगुल के प्रमाण में दो उत्सेधांगुल होते हैं अर्थात् उनके ५०० अंगुल के बराबर १००० उत्सेधांगुल अर्थात् एक प्रमाणांगुल होता है। इस अंगुल से अनादि पदार्थों का नाप किया जाता है। इससे बृहत्तर अन्य कोई अंगुल नहीं होता। कालप्रमाण :
कालप्रमाण भी दो प्रकार का है : प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न । एक समय की स्थितिवाले परमाणु या स्कन्ध, दो समय की स्थितिवाले परमाणु या स्कन्ध आदि का काल प्रदेशनिष्पन्न कालप्रमाण कहा जाता है। समय, आवलिका, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्रि, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, पल्य, सागर, अवसपिणी, उत्सर्पिणी, परावर्तन आदि को विभागनिष्पन्न कालप्रमाण कहते हैं। समय अति सूक्ष्म कालप्रमाण है। इसका स्वरूप समझाते हुए सूत्रकार ने दरजी के बालक (तुण्णागदारए) और वस्त्र के टुकड़े का उदाहरण दिया है । असंख्यात समयों के संयोग से एक आवलिका बनती है। संख्यात आवलिकाओं का एक उच्छ्वास और निःश्वास होता है। प्रसन्न मन, नीरोग शरीर, जरा और व्याधि से रहित पुरुष के एक श्वासोच्छास को प्राण कहते हैं । सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, ७७ लबों अर्थात् ३७७३ श्वासोच्छ्वासों का एक मुहूर्त, तीस मुहूर्तों की एक अहोरात्रि-दिनरात, पंद्रह अहोरात्रियों का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मासों की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयनों का एक संवत्सर, पाँच संवत्सरों का एक युग, बीस युगों का एक वर्षशत, दस वर्षशतों का एक वर्षसहस्र, सौ वर्षसहस्रों का एक वर्षशतसहस्र (एक लाख वर्ष), चौरासी वर्षशतसहस्रों का एक पूर्वांग, चौरासी पूर्वांगशतसहस्रों का एक पूर्व होता है। इसी प्रकार क्रमशः प्रत्येक को चौरासी लाख ( चौरासी शतसहस्र ) से गुना करने पर त्रुटितांग, त्रुटित, अडडांग, अडड, अववांग, अवव, हुहुतांग, हुहुत, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अक्षनिपुरांग, अक्षनिपुर,
१. सू० १४-५.
२. सू० २३.
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