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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास प्रमाण कहते हैं। विभागनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण के अंगुल, वितस्ती, हस्त, कुक्ष, दंड, क्रोश, योजन आदि विविध प्रकार हैं। अंगुल तीन प्रकार का होता है :
आत्मांगुल, उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल | जिस काल में जो मनुष्य उत्पन्न होते हैं उनका अपने अंगुल ( आत्मांगुल ) से १२ अंगुलप्रमाण मुख होता है, १०८ अंगुलप्रमाण पूरा शरीर होता है। ये पुरुष उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद से तीन प्रकार के हैं। जो पूर्ण लक्षणों से युक्त हैं तथा १०८ अंगुलप्रमाण शरीरवाले हैं वे उत्तम पुरुष हैं। जिनका शरीर १०४ अंगुलप्रमाण होता है वे मध्यम पुरुष हैं । जो ९६ अंगुलप्रमाण शरीरवाले होते हैं वे जघन्य पुरुष कहलाते हैं । इन्हीं अंगुलों के प्रमाण से छः अंगुल का एक पाद, दो पाद की एक वितस्ती, दो वितस्ती की एक रत्नि-हाथ, दो हाथ की एक कुक्षि, दो कुक्षि का एक धनुष, दो हजार धनुष का एक क्रोश--कोस और चार कोस का एक योजन होता है। इस प्रमाण से आराम, उद्यान, कानन, वन, वनखंड, कूप, नदी, वापिका, स्तूप, खाई, प्राकार, अट्टालक, द्वार, गोपुर, प्रासाद, शकट, रथ, यान आदि नापे जाते हैं। वह आत्मांगुल का स्वरूप हुआ। उत्सेधांगुल का अनेक प्रकार से वर्णन किया गया है जैसे परमाणु, त्रसरेणु, रथरेणु इत्यादि । प्रकाश में जो धूलिकण दिखाई देते हैं उन्हें त्रसरेणु कहते हैं। रथ के चलने से जो रज उड़ती है उसे रथरेणु कहते हैं। परमाणु का दो दृष्टियों से प्रतिपादन किया गया है : सूक्ष्म परमाणु और व्यावहारिक परमाणु । अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं के मिलने से एक व्यावहारिक परमाणु बनता है। व्यावहारिक परमाणुओं की क्रमशः वृद्धि होते-होते मनुष्यों का वालाग्र, लिक्षा ( लीख ), जूं , यव और अंगुल बनता है। ये उत्तरोत्तर आठगुने अधिक होते हैं। इसी अंगुल के प्रमाण से ६ अंगुल का अर्धपाद, १२ अंगुल का एक पाद, २४ अंगुल का एक हस्त, ४८ अंगुल की एक कुक्षि और ९६ अंगुल का एक धनुष होता है । इसी धनुष के प्रमाण से २००० धनुष का एक कोस और ४ कोस का एक योजन होता है । उत्सेधांगुल का प्रयोजन चार गतियों-नरक, देव, तिर्यक् और मनुष्य गति के प्राणियों की अवगाहना ( शरीरप्रमाण ) नापना है। अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दो प्रकार की होती है। उदाहरण के लिए नरकगति के प्राणियों की भवधारणी या अर्थात् आयुपर्यन्त रहने वाली जघन्य अवगाहना अंगुल के असं. ख्यातवें भाग के बराबर होती है तथा उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुषप्रमाण होती है ।- इन्हीं की उत्तरवैक्रिया अर्थात् कारणवश बनाई जाने वाली अवगाहना
१. सू० १३.
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