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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, नयुतांग, नयुत, चुलितांग, चुलित, शीर्षप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका बनता है। यहाँ तक गणित का विषय है। इससे आगे उपमा की विवेचना है । उपमा दो प्रकार की है : पल्योपम और सागरोपम । पल्योपम के तीन भेद हैं : उद्धारपल्योपम, अद्धापल्योपम और क्षेत्रपल्योपम । इनमें से प्रत्येक के दो भेद हैं : सूक्ष्म और व्यावहारिक । इन भेद-प्रभेदों का सूत्रकार ने सदृष्टान्त विस्तारपूर्वक व्याख्यान किया है एवं नारकियों, देवों, स्थावरों, विकलेन्द्रियों, तिर्यंच पंचेन्द्रियों, खेचरों, मनुष्यों, व्यंतरों, ज्योतिष्कों एवं वैमानिकों की जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति-आयु पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है । इसी प्रकार सागरोपम का भी उदाहरणसहित वर्णन किया है। यह वर्णन विशेष रोचक है।
भावप्रमाण :
भावप्रमाण तीन प्रकार का है : गुणप्रमाण, नयप्रमाग और संख्याप्रमाण । गुणप्रमाण के दो भेद हैं : जीवगुणप्रमाण और अजीवगुणप्रमाण । अजीवगुणप्रमाण पाँच प्रकार का है : वर्णगुणप्रमाण, गंधगुणप्रमाण, रसगुणप्रमाण, स्पर्शगुणप्रमाण और संस्थानगुणप्रमाण । इनके पुनः क्रमशः पाँच, दो, पाँच, आठ और पाँच भेद हैं। ____ जीवगुणप्रमाण तीन प्रकार का है : ज्ञानगुणप्रमाण, दर्शनगुणप्रमाण और चारित्रगुणप्रमाण । इनमें से ज्ञानगुणप्रमाण के चार भेद हैं : प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम।
प्रत्यक्ष:
प्रत्यक्ष दो प्रकार का है : इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष । इन्द्रिय प्रत्यक्ष पाँच प्रकार का है : श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष, चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्ष, जिह्वेन्द्रियप्रत्यक्ष और स्पर्शेन्द्रियप्रत्यक्ष । नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के तीन भेद हैं : अवधिज्ञानप्रत्यक्ष, मनःपर्ययज्ञानप्रत्यक्ष और केवलज्ञानप्रत्यक्ष ।'
१. सू. २४-६. २. सू. २७-४४. ३. भावप्रमाण का अर्थ है वस्तु का यथावस्थित ज्ञान । ४. सू. ६४-५. ५. सू. ६६. ६. इन ज्ञानों के स्वरूप-वर्णन के लिए नन्दी सूत्र देखना चाहिए ।
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