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________________ मनुयोगद्वार ३२७ ८. संघातिमकर्मजन्य,' ९. अक्षकर्मजन्य, १०. वराटककर्मजन्य। इनमें से प्रत्येक के एकरूप व अनेकरूप दो भेद होते हैं। ये पुनः सद्भावस्थापना एवं असद्भावस्थापना के भेद से दो प्रकार के हैं। इस प्रकार स्थापना आवश्यक के कुल चालीस भेद हैं । द्रव्य आवश्यक के दो भेद हैं : आगमतः और नोआगमतः। 'आवश्यक' पद सीख लेना एवं उसका निर्दोष उच्चारण आदि करना आगमतः द्रव्यावश्यक है। इसका विशेष स्पष्टीकरण करने के लिए सूत्रकार ने सात नयों से द्रव्य-आवश्यक का विचार किया है। नोआगमतः द्रव्यावश्यक का तीन दृष्टियों से विचार किया गया है : ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । 'आवश्यक' पद के अर्थ को जानने वाले प्राणी के प्राणरहित शरीर को ज्ञशरीरद्रव्यावश्यक कहते हैं। जैसे मधु अथवा घृत के रिक्त घट को भी मधुघट अथवा घृतघट कहते हैं क्योंकि उसमें पहले मधु अथवा घृत था, उसी प्रकार आवश्यक पद का अर्थ जानने वाला चेतन तत्त्व वर्तमान में विद्यमान नहीं है फिर भी उसका शरीर आवश्यक के भूतकालीन सम्बन्ध के कारण द्रव्यावश्यक कहा जाता है। जो जीव इस समय 'आवश्यक' पद का अर्थ नहीं जानता है किन्तु आगामी काल में अपने इसी शरीर द्वारा उसे सीखेगा उसका शरीर भव्यशरीर द्रव्यावश्यक कहलाता है । जैसे नये घट को भी आगामी काल की अपेक्षा से घृतघट अथवा मधुघट कहते हैं उसी प्रकार भविष्य में 'आवश्यक' पद का अर्थ जाननेवाला शरीर भी द्रव्यावश्यक कहा जाता है। तद्व्यतिरिक्त अर्थात् ज्ञशरीर व भव्यशरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक का स्वरूप बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि यह तीन प्रकार का है : लौकिक, कुप्रावचनिक और लोकोत्तरीय । राजा, युवराज, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि का प्रातःकालीन एवं सायंकालीन आवश्यक कर्तव्य लौकिक द्रव्यावश्यक है । चर्म आदि धारण करनेवाले कुतीर्थिकों की क्रियाएं कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक है । श्रमण के गुणों से रहित, निरंकुश, जिन भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाले स्वच्छंदविहारी स्वमतानुयायी की उभयकालीन क्रियाएं लोकोत्तर द्रव्यावश्यक है। यहां तक द्रव्यावश्यक का अधिकार है । भावआवश्यक भी आगमतः और नोआगमतः भेद से दो प्रकार का है । आवश्यक के स्वरूप को उपयोगपूर्वक जानना आगमतः भावावश्यक है। नोआगमतः भावावश्यक तीन प्रकार का है : लौकिक, कुप्रावचनिक और लोकोत्तरिक । प्रातःकाल महाभारत एवं सायंकाल रामायण का उपयोगसहित पठन-पाठन लौकिक भावावश्यक है | चर्म आदि धारण करनेवालों का अपने इष्ट देव को अंजलि जोड़ कर सादर १. वस्त्रादि के टुकड़े जोड़ना। २. पासा। ३. कौड़ी। ४. सू. ७-११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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