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__ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नमस्कार आदि करना कुप्रावनिक भावावश्यक है । शुद्ध उपयोगपूर्वक जिनप्रणीत वचनों में श्रद्धा रखनेवाले श्रमणगुणसम्पन्न अथवा श्रावकगुणयुक्त साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका द्वारा प्रातःकाल एवं सायंकाल उपयोगपूर्वक आवश्यक (प्रतिक्रमण) करने का नाम लोकोत्तर भावावश्यक है।'
आवश्यक का निक्षेप करने के बाद सूत्रकार श्रुत, स्कन्ध और अध्ययन का निक्षेपपूर्वक विवेचन करते हैं । आवश्यक की भाँति श्रुत भी चार प्रकार का है : नामश्रुत, स्थापनाश्रुत, द्रव्यश्रुत और भावश्रुत ।' श्रुत के एकार्थक नाम ये हैं : श्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन-प्रवचन व आगम:
सुयं सुत्तं गंथं सिद्धत सासणं आण त्ति वयण उवएसो । पण्णवणे आगमे वि य एगट्ठा पज्जवा सुत्ते ।।
-सू. ४२, गा. १.
स्कन्ध भी चार प्रकार का है : नामस्कन्ध, स्थापनास्कन्ध, द्रव्यस्कन्ध और भावस्कन्ध । स्कन्ध के एकार्थक नाम ये हैं : गण, काय, निकाय, स्कन्ध, वर्ग, राशि, पुंज, पिण्ड, निकर, संघात, आकुल, समूह । एतद्विषयक सूत्र-गाथा इस प्रकार है :
गण काए निकाए चिए खंधे वग्गे तहेव रासी य। पुंजे य पिंडे निगरे संघाए आउल समूहे ।।
-सू. १२, गा. १ (स्कन्धाधिकार ). आवश्यक में निम्नोक्त अर्थाधिकार हैं : १. सावद्ययोगविरतिरूप प्रथम अध्ययन, २. गुणकीर्तनरूप द्वितीय अध्ययन, ३. गुणयुक्त को वन्दनरूप तृतीय अध्ययन, ४. अतिचारों की निवृत्तिरूप चतुर्थ अध्ययन, ५. दोषरूप व्रण की चिकित्सारूप पंचम अध्ययन, ६. उत्तरगुणधारणरूप षष्ठ अध्ययन । इन अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं : १. सामायिक, २. चतुर्विशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग, ६. प्रत्याख्यान । सामायिकरूप प्रथम अध्ययन के चार अनुयोगद्वार हैं : १. उपक्रम, २. निक्षेप, ३. अनुगम और ४. नय ।
१. सू. १३-२५. २. सू. २७. ३. सू. १ (स्कन्धाधिकार ).
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