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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास स्वरूप, संख्येय, असंख्येय एवं अनन्त के भेद-प्रभेद, भमण का स्वरूप एवं उसके लिए विविध उपमाएँ, नियुक्ति-अनुगम के तीन भेद, सामायिकविषयक प्रश्नोत्तर
आदि। सूत्र का ग्रन्थमान लगभग २००० श्लोकप्रमाण है। गद्यनिबद्ध प्रस्तुत सूत्र में यत्र-तत्र कुछ गाथाएँ भी हैं। आवश्यकानुयोग: ____ ग्रन्थ के प्रारम्भ में आचार्य ने आभिनिबोधिक आदि पांच प्रकार के ज्ञान का निर्देश करते हुए श्रुतज्ञान का विस्तार से वर्णन किया है। श्रुतज्ञान का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा एवं अनुयोग' होता है, जब कि अन्य ज्ञानों का नहीं होता। उद्देशादि अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य दोनों प्रकार के सूत्रों के होते हैं । यही बात कालिक और उत्कालिक दोनों प्रकार के अंगबाह्य सूत्रों के विषय में भी है । यदि उत्कालिक सूत्रों के उद्देशादि हैं तो क्या आवश्यक सूत्र के भी उद्देशादि हैं ? अन्य सूत्रों की तरह आवश्यक सूत्र के भी उद्देशादि होते हैं। इस संक्षिप्त भूमिका के बाद सूत्रकार आवश्यक का अनुयोग-व्याख्यान प्रारम्भ करते हैं ।
सर्वप्रथम आचार्य इस प्रश्न का समाधान करते हैं कि आवश्यक एक अंगरूप है अथवा अनेक अंगरूप, एक श्रुतस्कंधरूप है अथवाअनेक श्रुतस्कन्धरूप, एक अध्ययनरूप है अथवा अनेक अध्ययनरूप, एक उद्देशरूप है अथवा अनेक उद्देशरूप ! आवश्यक न एक अंगरूप है, न अनेक अंगरूप । वह एक श्रुतस्कन्धरूप है, अनेक श्रुतस्कन्धरूप नहीं। वह एक अध्ययनरूप न होकर अनेक अध्ययनरूप है । उसमें न एक उद्देश है, न अनेक । आवश्यक-श्रुत-स्कन्धाध्ययन का स्वरूप विशेष स्पष्ट करने के लिए आवश्यक, श्रुत, स्कन्ध और अध्ययन-इन चारों का पृथक्-पृथक निक्षेप करना आवश्यक है।
आवश्यक का निक्षेप चार प्रकार का है : नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । किसी का 'आवश्यक' नाम रख देना नाम-आवश्यक है । किसी वस्तु की आवश्यक के रूप में स्थापना करने का नाम स्थापना-आवश्यक है। इसके चालीस भेद हैं: १. काष्ठकर्मजन्य, २. चित्रकर्मजन्य, ३. वस्त्रकर्मजन्य, ४. लेपकर्मजन्य, ५. प्रन्थिकर्मजन्य, ६. वेष्टनकर्मजन्य, ७. पूरिमकर्मजन्य',
१. उद्देश भर्थात् पढ़ने की भाज्ञा, समुद्देश अर्थात् पढ़े हुए का स्थिरीकरण, भनुज्ञा
अर्थात् भन्य को पढ़ाने की भाज्ञा, अनुयोग भर्थात् विस्तार से व्याख्यान । २. सू. १-५. ३. सू. ६. ४. धातु भादि को पिघलाकर सांचे में ढालना।
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