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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
होना चाहिए । इसके बाद वह अवाय में प्रवेश करता है और निश्चय करता है कि यह शब्द अमुक का ही है । तदनन्तर वह धारणा में प्रवेश करता है एवं उस शब्द के ज्ञान को संख्येय अथवा असंख्येय काल तक हृदय में धारण किये रहता है । इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में भी समझ लेना चाहिए । नोइन्द्रिय अर्थात् मन से अर्थावग्रह आदि इस प्रकार होते हैं : जैसे कोई पुरुष अव्यक्त स्वप्न देखता है और प्रारम्भ में 'कुछ स्वप्न है' ऐसा समझता है । यह मनोजन्य अर्थावग्रह है । तदनन्तर क्रमशः मनोजन्य ईहा, अवाय और धारणा की उत्पत्ति होती है ।
संक्षेप में उपर्युक्त भेदों वाले मतिज्ञान - आभिनिबोधिकज्ञान का चार दृष्टियों से विचार हो सकता है : द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्य की अपेक्षा से मतिज्ञानी सामान्यतया सब पदार्थों को जानता है किन्तु देखता नहीं । क्षेत्र की दृष्टि से मतिज्ञानी सामान्यप्रकार से सम्पूर्ण क्षेत्र को जानता है किन्तु देखता नहीं । काल की अपेक्षा से मतिज्ञानी सामान्यतया सम्पूर्ण काल को जानता है किन्तु देखता नहीं । भाव की अपेक्षा से मतिज्ञानी सामान्यतया समस्त भावोंपर्यायों को जानता है किन्तु देखता नहीं । मतिज्ञान का उपसंहार करते हुए आचार्य कहते हैं : शब्द स्पृष्ट ( छूने पर ) ही सुना जाता है, रूप अस्तुष्ट ही देखा जाता है, रस, गन्ध और स्पर्श स्पृष्ट एवं बद्ध ( आत्मप्रदेशों से गृहीत होने पर ) ही जाना जाता है । ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा- ये सब आभिनिबोधिक - मतिज्ञान के पर्याय हैं :
पुट्ठे सुणेइ सद्दं, रूवं पुण पासइ अपुट्ठे तु । गंधं रसं च फासं, च बद्धपुछें वियागरे ॥ ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा । सन्ना सई मई पन्ना, सव्वं आभिणिबोहियं ॥
श्रुतज्ञान :
श्रुतज्ञानरूप परोक्षज्ञान क्या है ? श्रुतज्ञानरूप परोक्षज्ञान चौदह प्रकार का है : १. अक्षरश्रुत, २. अनक्षरश्रुत, ३. संज्ञिश्रुत, ४. असंज्ञिश्रुत, ५. सम्यक् श्रुत, ६. मिध्याश्रुत, ७. सादिश्रुत, ८. अनादिश्रुत, ९. सपर्यवसितश्रुत, १०. अपर्यवसितश्रुत, ११. गमिकश्रुत, १२. अगमिकश्रुत, १३. अङ्गप्रविष्ट, १४. अनङ्गप्रविष्ट । इनमें से अक्षरश्रुत के तीन भेद हैं : संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर | अक्षर
9. सू. ३५.
२. सू. ३६.
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-गा. ८५, ८७.
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