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नन्दी २. घ्राणेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, ३. जिहेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, ४. स्पर्शेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह । अर्थावग्रह छः का प्रकार है : १. श्रोत्रेन्द्रिय-अर्थावग्रह, २. चक्षुरिन्द्रियअर्थावग्रह, ३. घाणेन्द्रिय अर्थावग्रह, ४. जिह्वेन्द्रिय अर्थावग्रह, ५. स्पर्शेन्द्रियअर्थावग्रह, ६. नोइन्द्रिय (मन)-अर्थावग्रह । अवग्रह के ये पाँच नाम एकार्थक है : अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता और मेधा ।'
ईहा भी अर्थावग्रह की ही भाँति छः प्रकार की होती है। ईहा के एकार्थक शब्द ये हैं : आभोगनता, मार्गणता, गवेषणता, चिन्ता और विमर्श ।'
अवाय भी श्रोत्रेन्द्रिय आदि भेद से छः प्रकार का है। इसके एकार्थक नाम इस प्रकार हैं : आवर्तनता, प्रत्यावर्त्तनता, अपाय, बुद्धि और विज्ञान ।।
धारणा भी पूर्वोक्त रीति से छः प्रकार की है। इसके एकार्थक पद ये हैं : धरण, धारणा, स्थापना, प्रतिष्ठा और कोष्ठ । अवग्रह आदि का स्वरूप सूत्रकार ने आगे दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया है। ___ मतिज्ञान की अवग्रह आदि अवस्थाओं का कालमान बताते हुए आचार्य कहते हैं कि अवग्रह एक समय तक रहता है, ईहा की अवस्थिति अन्तर्मुहूर्त है, अवाय भी अन्तर्मुहूतं तक रहता है, धारणा संख्येय अथवा असंख्येय काल तक रहती है।" ___ अवग्रह के एक भेद व्यंजनावग्रह का स्वरूप समझाने के लिए सूत्रकार ने निम्न दृष्टान्त दिया है :
जैसे कोई पुरुष किसी सोये हुए व्यक्ति को ओ अमुक ! ओ अमुक ! ऐसा कहकर जगाता है। उसे कानों में प्रविष्ट एक समय के शब्द-पुद्गल सुनाई नहीं देते, दो समय के शब्द-पुद्गल सुनाई नहीं देते, यावत् दस समय तक के शब्दपुद्गल सुनाई नहीं देते। इसी प्रकार संख्येय समय के प्रविष्ट पुद्गलों को भी वह ग्रहण नहीं करता । असंख्येय समय के प्रविष्ट पुद्गल ही उसके ग्रहण करने में आते हैं । यही व्यंजनावग्रह है। इसे आचार्य ने मल्लक-शराव-सिकोरा के दृष्टान्त से भी स्पष्ट किया है । अर्थावग्रह आदि का स्वरूप इस प्रकार है : जैसे कोई पुरुष जाग्रत् अवस्था में अव्यक्त शब्द को सुनता है और उसे 'कुछ शब्द है' ऐसा समझ कर ग्रहण करता है किन्तु यह नहीं जानता कि वह शब्द किसका है ? तदनन्तर वह ईहा में प्रवेश करता है और तब जानता है कि यह शब्द अमुक का
१. सू. २६-३०. २. सू. ३१. ३. सू. ३२. ४. सू. ३३. ५. सू. ३४. ६. यह काल का एक प्रमाणविशेष है ।
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