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नन्दी
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की संस्थानाकृति का नाम संज्ञाक्षर है। अक्षर के व्यंजनामिलाप को व्यंजनाक्षर कहते हैं। अक्षरलब्धिवाले जीव को लध्यक्षर (भावश्रुत ) उत्पन्न होता है। वह श्रोत्रेन्द्रिय आदि भेद से छः प्रकार का है ।' अनक्षरश्रुत अनेक प्रकार का कहा गया है, जैसे ऊर्ध्व श्वास लेना, नीचा श्वास लेना, थूकना, खाँसना, छींकना, निसंघना, अनुस्वारयुक्त चेष्टा करना आदि :
ऊससियं नीससियं, निच्छूढं खासियं च छीयं च । निस्सिघियमणुसारं, अणक्खरं छेलियाईयं ।।
-गा. ८८.
संज्ञिश्रुत तीन प्रकार की संज्ञावाला है : (दीर्घ) कालिकी, हेतूपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी। जिसमें ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता, विमर्श आदि शक्तियाँ विद्यमान हैं वह कालिकी संज्ञावाला है। जो प्राणी ( वर्तमान की दृष्टि से) हिताहित का विचार कर किसी क्रिया में प्रवृत्त होता है वह हेतूपदेशिकी संज्ञावाला है । सम्यक् श्रुत के कारण हिताहित का बोध प्राप्त करनेवाला दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञावाला है । असंज्ञिश्रुत संज्ञिश्रुत से विपरीत लक्षणवाला है ।
सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी अर्हन्त भगवन्त तीर्थंकरप्रणीत द्वादशांगी गणिपिटक सम्यक्श्रुत है । द्वादशाङ्ग ये हैं : १. आचार, २. सूत्रकृत, ३. स्थान, ४. समवाय, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञाताधर्मकथा, ७. उपासकदशा, ८. अन्तकृद्दशा, ९. अनुत्तरौपपातिकदशा, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाकश्रुत, १२. दृष्टिवाद । यह द्वादशाङ्गी गणिपिटक चतुर्दशपूर्वधर के लिए सम्यक्श्रुत है, अभिन्नदशपूर्वी अर्थात् सम्पूर्ण दस पूर्वो के ज्ञाता के लिए भी सम्यक्श्रुत है किन्तु दूसरों के लिए विकल्प से सम्यकश्रुत है अर्थात् उनके लिए यह सम्यक श्रुत भी हो सकता है
और मिथ्याश्रुत भी। मिथ्याश्रुत क्या है ? अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों द्वारा स्वच्छन्द बुद्धि की कल्पना से कल्पित ग्रन्थ मिथ्याश्रुतान्तर्गत हैं। इनमें से कुछ ग्रन्थ इस प्रकार हैं : भारत ( महाभारत ), रामायण, भीमासुरोक्त, कौटिल्यक, शकटभद्रिका, खोडमुख (घोटकमुख), कार्पासिक, नागसूक्ष्म, कनकसप्तति, वैशेषिक, बुद्धवचन, त्रैराशिक, कापिलिक, लौकायतिक, षष्ठितन्त्र, माठर, पुराण, व्याकरण, भागवत, पातंजलि, पुष्य दैवत, लेख, गणित, शकुनरुत, नाटक अथवा ७२ कलाएँ और साङ्गोपाङ्ग चार वेद । ये सब ग्रन्थ मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्यात्वरूप से
१.
सू. ३०. २. सू. ३१.
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