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________________ नन्दी ३१५ १ आकुल हो उठे । गाँव के बाहर इकट्ठे होकर वे परस्पर विचार करने लगे कि अब क्या करना चाहिए । राजा के इस दुष्ट आदेश का पालन न करने पर अति कठिन दण्ड भोगना पड़ेगा । इस आदेश को किस तरह कार्यरूप में परिणत किया जाए ? इस विकट समस्या को कैसे सुलझाया जाए ? इस प्रकार चिन्ता से व्याकुल उन सब लोगों को विचार करते-करते दोपहर हो गया। इधर रोहक अपने पिता भरत के बिना भोजन के लिए व्याकुल हो रहा था । बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के बाद पिता के पास आया और कहने लगा कि पिताजी ! मैं भूख से बहुत व्याकुल हो गया हूँ अतः भोजन के लिए जल्दी घर चलिए । भरत ने कहा- वत्स ! गाँव के लोग आज बहुत दुःखी हैं । तुम उनके कष्ट को नहीं जानते हो । रोहक पूछने लगा - पिताजी ! गाँववालों को ऐसा कौन-सा कष्ट है जिससे वे इतने दुःखी हैं ? भरत ने राजा के आदेश के पालन की अशक्यता पर थोड़ा-सा प्रकाश डाला | भरत की बात सुनकर रोहक को बड़ी हँसी आई । हँसते-हँसते ही उसने कहाइसीलिए आप सब चिन्तित हैं ! इसमें चिन्ता की कौन-सी बात है ? आप लोग मंडप बनाने के लिए शिला के चारों ओर नीचे की भूमि खोद डालिए और फिर यथास्थान आधारस्तम्भ लगाकर मध्यवर्ती भूमि को भी खोद डालिए तथा चारों ओर एक सुन्दर दीवाल खड़ी कर दीजिए । राजा के आदेश का अक्षरशः पालन हो जाएगा। मंडप निर्माण के इस उपाय से गाँववाले अति प्रसन्न हुए । कुछ ही दिनों में मंडप तैयार हो गया । गाँववालों ने राजा से जाकर निवेदन किया कि श्रीमान् का आदेश पूरा कर दिया गया है । राजा ने पूछा- यह कार्य कैसे सम्पन्न हुआ ? गाँववालों ने सारी कथा कह सुनाई । राजा समझ गया कि. यह सत्र भरत के पुत्र रोहक का बुद्धि-कौशल है । यह रोहक की औत्पत्तिकी बुद्धि का एक उदाहरण है । इस प्रकार के और भी अनेक उदाहरण प्रस्तुत सूत्र में संकेतरूप से दिये गये हैं । वैनयिकी बुद्धि : कठिन कार्यभार के निर्वाह में समर्थ, धर्म, वर्णन करने वाले सूत्र और अर्थ का सार ग्रहण परलोक दोनों में फल देनेवाली बुद्धि विनयसमुत्थ अर्थात् विनय से उत्पन्न होनेवाली अर्थ और कामरूप त्रिवर्ग का करनेवाली तथा इहलोक और वैनयिकी बुद्धि है : भरनित्थरणसमत्था, तिवग्गमुत्तत्थगहियपेयाला । उभओलोग फलवई, विजयसमुत्था हवइ बुद्धी ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only -गा. ७३. www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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