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________________ ३१२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास संक्षेप में केवलज्ञान समस्त पदार्थों के परिणामों एवं भावों को जाननेवाला है, अनन्त है, शाश्वत है, अप्रतिपाती है, एक ही प्रकार का है : अह सासयम पडिवाई, सव्वदव्वपरिणामभावविष्णत्तिकारणमणतं । एकविहं केवलं नाणं ॥ आभिनिबोधिकज्ञान : नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के अन्तिम प्रकार केवलज्ञान का वर्णन करने के बाद सूत्रकार प्रत्यक्षज्ञान की चर्चा समाप्त कर परोक्षज्ञान की चर्चा प्रारम्भ करते हैं । परोक्षज्ञान दो प्रकार का है : आभिनिबोधिक और श्रुत । जहाँ आभिनित्रोधिकज्ञान है वहाँ श्रुतज्ञान है और जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ आभिनिबोधिकज्ञान है । ये दोनों परस्पर - अनुगत हैं । इन दोनों में विशेषता यह है कि अभिमुख आये हुए पदार्थों का जो नियत बोध कराता है वह आभिनिबोधिज्ञान है । इसी को मतिज्ञान भी कहते हैं । श्रुतका अर्थ है सुनना । श्रुतज्ञान अर्थात् शब्दजन्यज्ञान मतिपूर्वक होता है किन्तु मतिज्ञान श्रुतपूर्वक नहीं होता । ' - सू. २२, गा. ६६. अविशेषित मति मति-ज्ञान और मति- अज्ञान' उभयरूप है । विशेषित मति अर्थात् सम्यग्दृष्टि की मति मति - ज्ञान है तथा मिध्यादृष्टि की मति मति-अज्ञान है । इसी प्रकार अविशेषित श्रुत श्रुत ज्ञान और श्रुत- अज्ञान उभयरूप है जबकि विशेषित अर्थात् सम्यग्दृष्टि का श्रुत श्रुत ज्ञान है एवं मिथ्यादृष्टि का श्रुत श्रुतअज्ञान है । आभिनिबोधिकज्ञान- मतिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है: श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित । अश्रुतनिश्रित मति-बुद्धि चार प्रकार की होती है : १. औत्पत्तिकी, २. वैनयिकी, ३. कर्मजा, ४. पारिणामिकी : Jain Education International उपपत्तिया वेणइआ, कम्मया परिणामिया । बुद्धी चडव्विहा वुत्ता, पंचमा नोवलब्भई ॥ औत्पत्तिकी बुद्धि : " पहले बिना देखे बिना सुने और बिना जाने पदार्थों को तत्काल विशुद्धरूप से ग्रहण करने वाली अबाधित फलयुक्त बुद्धि को औत्पत्तिकी बुद्धि कहते हैं । यह १. सू. २४. २. अज्ञान अर्थात् मिथ्याज्ञान | ३. सू. २५. For Private & Personal Use Only - सू. २६, गाथा ६८. www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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