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________________ नन्दी पूर्वक जानता व देखता है । संक्षेप में मनःपर्ययज्ञान मनुष्यों के चिन्तित अर्थ को प्रकट करनेवाला है, मनुष्य-क्षेत्र तक सीमित है तथा चारित्रयुक्त पुरुष के क्षयोपशम गुण से उत्पन्न होनेवाला है : मणपज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचिंतिअत्थपागडणं । माणुसखित्तनिबद्धं, गुणपच्चइअं चरित्तवओ ।। -सूत्र १८, गा. ६५. केवलज्ञान: केवलज्ञान क्या है ? केवलज्ञान दो प्रकार का कहा गया है : भवस्थकेवलज्ञान और सिद्धकेवलज्ञान | भवस्थकेवलज्ञान अर्थात् संसार में रहे हुए अर्हन्तों का केवलज्ञान दो प्रकार का है : सयोगिभवस्थकेवलज्ञान और अयोगिभवस्थकेवलज्ञान । सयोगिभवस्थकेवलज्ञान पुनः दो प्रकार का है:प्रथमसमय-सयोगिभवस्थकेवलज्ञान और अप्रथमसमय-सयोगिभवस्थकेवलज्ञान अथवा चरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान और अचरमसमय-सयोगिभवस्थकेवलज्ञान । इसी प्रकार अयोगिभवस्थकेवलज्ञान भी दो प्रकार का है। सिद्धकेवलज्ञान के दो भेद हैं : अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान और परम्परसिद्धकेवलज्ञान । अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान पन्द्रह प्रकार का कहा गया है : १. तीर्थसिद्ध, २. अतीर्थसिद्ध, ३. तीर्थङ्करसिद्ध, ४. अतीर्थंकरसिद्ध, ५. स्वयंबुद्धसिद्ध, ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध, ७. बुद्धबोधितसिद्ध, ८. स्त्रीलिंगसिद्ध, ९. पुरुषलिंगसिद्ध, १०. नपुंसकलिंगसिद्ध, ११. स्वलिंगसिद्ध, १२. अन्यलिंगसिद्ध, .१३. गृहलिंगसिद्ध, १४. एकसिद्ध, १५. अनेकसिद्ध । परम्परसिद्धकेवलज्ञान अनेक प्रकार का है, जैसे अप्रथमसमयसिद्ध, द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतुःसमयसिद्ध, यावत् दशसमयसिद्ध, संख्येयसमयसिद्ध, असंख्येयसमयसिद्ध, अनन्तसमयसिद्ध आदि । सामान्यतः केवलज्ञान का चार दृष्टियों से विचार किया गया है : १. द्रव्य, २. क्षेत्र, ३. काल और ४. भाव । द्रव्य की अपेक्षा से केवलज्ञानी सम्पूर्ण द्रव्यों को जानता व देखता है। क्षेत्र की अपेक्षा से केवलज्ञानी लोकालोकरूप समस्त क्षेत्र को जानता व देखता है। काल की अपेक्षा से केवलज्ञानी सम्पूर्ण काल-तीनों कालों को जानता व देखता है । भाव की अपेक्षा से केवलज्ञानी द्रव्यों के समस्त पर्यायों को जानता व देखता है । १. सू. १८. २. काय, वाक् और मन के व्यापार को योग कहते हैं । सयोगी का अर्थ योग सहित और अयोगी का भर्थ योगरहित है । ३. सू. १९-२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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