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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास को ? यह ज्ञान सम्मूच्छिम मनुष्यों को नहीं अपितु गर्भज मनुष्यों को ही होता है। गर्भज मनुष्यों में से भी कर्मभूमि के गर्भज मनुष्यों को ही होता है, अकर्मभूमि अथवा अंतरद्वीप के गर्भज मनुष्यों को नहीं। कर्मभूमि के गर्भज मनुष्यों में से भी संख्येय वर्ष की आयुवालों को ही होता है, असंख्येय वर्ष की आयुवाल को नहीं । संख्येय वर्ष की आयुवालों में से भी पर्याप्तक ( इन्द्रिय, मन आदि द्वारा पूर्ण विकसित ) को ही होता है, अपर्याप्तक को नहीं । पर्याप्तकों में से भी सम्यग्दृष्टि को ही होता है, मिथ्यादृष्टि को अथवा मिश्रदृष्टि ( सम्यक-मिथ्यादृष्टि ) को नहीं। सम्यग्दृष्टि वालों में से भी संयत ( साधु) सम्यग्दृष्टि को ही होता है, असंयत अथवा संयतासंयत सम्यग्दृष्टि को नहीं। संयतों-साधुओं में से भी अप्रमत्त संयत को ही होता है, प्रमत्त संयत को नहीं । अप्रमत्त साधुओं में से भी ऋद्धिप्राप्त को ही होता है, ऋद्धिशून्य को नहीं।' इस प्रकार मनःपर्ययज्ञान के अधिकारी का नव्यन्याय की शैली में प्रतिपादन करने के बाद सूत्रकार मनःपर्ययज्ञान का स्वरूप-वर्णन प्रारंभ करते हैं। मनःपर्ययज्ञान दो प्रकार का होता है : ऋजुमति और विपुलमति । दोनों प्रकार के मनःपर्ययज्ञान का संक्षेप में चार दृष्टियों से विचार किया जाता है : १. द्रव्य, २. क्षेत्र, ३. काल और ४. भाव । द्रव्य की अपेक्षा से ऋजुमति अनन्तप्रदेशी अनन्त स्कन्धों ( अणुसंघात) को जानता व देखता है और उसी को विपुलमति कुछ अधिक विपुल, विशुद्ध तथा स्पष्ट जानता-देखता है (ते चेव विउलमई अब्भहियतराए विउलतराए विसुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ)। क्षेत्र की अपेक्षा से ऋजुमति कम से कम अंगुल के असंख्यातवें भाग और अधिक से अधिक नीचे इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपरी भाग के नीचे के छोटे प्रतरों तक, ऊपर ज्योतिष्क विमान के ऊपरी तलपर्यन्त तथा तिर्यक-तिरछा मनुष्य-क्षेत्र के भीतर ढाई द्वीप-समुद्रपर्यन्त अर्थात् पन्द्रह कर्मभूमि, तीस अकर्मभूमि और छप्पन अन्तरद्वीपों में रहे हुए संज्ञी ( समनस्क ) पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जानता व देखता है और विपुलमति उसी को ढाई अंगुल अधिक, विपुलतर, विशुद्वतर तथा स्पष्टतर जानता-देखता है। काल की अपेक्षा से ऋजुमति पल्योपम के असंख्यातवें भाग के भूत व भविष्य को जानता-देखता है
और विपुलमति उसी को कुछ अधिक विस्तार एवं विशुद्धिपूर्वक जानता-देखता है । भाव की अपेक्षा से ऋजुमति अनन्त भावों ( भावों के अनन्तवें भाग) को जानता-देखता है और विपुलमति उसी को कुछ अधिक विस्तार एवं विशुद्धि
१. सू....
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