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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
प्रथम ५० गाथाओं में मंगलाचरण किया है। तदनन्तर सूत्र के मूल विषय आभिनिबोधिक आदि पाँच प्रकार के ज्ञान की चर्चा प्रारम्भ की है। पहले आचार्य ने ज्ञान के पाँच भेद किये हैं । तदनन्तर प्रकारान्तर से प्रत्यक्ष और परोक्षरूप दो भेद किये हैं। प्रत्यक्ष के इन्द्रियप्रत्यक्ष व नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के रूप में पुनः दो भेद किये हैं। इन्द्रियप्रत्यक्ष में पाँच प्रकार की इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान का समावेश है। इस प्रकार के ज्ञान को जैन न्यायशास्त्र में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। नोइन्द्रियप्रत्यक्ष में अवधि, मनःपर्यय एवं केवलज्ञान का समावेश है। परोक्षज्ञान दो प्रकार का है : आभिनिबोधिक और श्रत ।
आभिनिबोधिक को मति भी कहते हैं। आभिनिबोधिक के श्रुतनिश्रित व अश्रुतनिश्रितरूप दो भेद हैं। श्रुतज्ञान के अक्षर, अनक्षर, संजी, असंज्ञी, सम्यक् , मिथ्या, सादि, अनादि, सावसान, निरवसान, गमिक, अगमिक, अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्टरूप चौदह भेद हैं।
नन्दीसूत्र की रचना गद्य व पद्य दोनों में है। सूत्र का ग्रन्थमान लगभग ७०० श्लोकप्रमाण है । प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित विषय अन्य सूत्रों में भी उपलब्ध होते हैं। उदाहरण के लिए अवधिज्ञान के विषय, संस्थान, भेद आदि पर प्रज्ञापना सूत्र के ३३ वें पद में प्रकाश डाला गया है। भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति ) आदि सूत्रों में विविध प्रकार के अज्ञान का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार मतिज्ञान का भी भगवती आदि सूत्रों में वर्णन मिलता है । द्वादशांगी श्रुत
बीकानेर, सन् १९४१, महावीर जैन भाण्डार, देहली; सन्मति
ज्ञानपीठ, आगरा, सन् १९५८. (आ) अमोलकऋषिकृत हिन्दी अनुवादसहित-सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद,
हैदराबाद, वी० सं० २४४६. इ) मुनि हस्तिमलकृत संस्कृत छाया, हिन्दी टीका, टिप्पणी आदि से
अलंकृत-रायबहादुर मोतीलाल मुथा, भवानी पेठ, सातारा,
सन् १९४२. (ई) मलयगिरिप्रणीत वृत्तियुक्त-रायबहादुर धनपतसिंह, बनारस,
वि० सं० १९३६; भागमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२४. (उ) चूर्णि व हरिभद्रविहित वृत्तिसहित-ऋषभदेवजी केशरीमलजी ____श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् १९२८. (ऊ) मुनि घासीलालकृत संस्कृत व्याख्या व उसके हिन्दी-गुजराती अनु
वाद के साथ—जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, सन् १९५८. (ऋ) आचार्य आत्मारामकृत हिन्दी टीकासहित--आचार्य श्री आत्माराम
नैन प्रकाशन समिति, लुधियाना, सन् १९६६.
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