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जीतकल्प
व्युत्सर्ग:
गमन, आगमन, विहार, श्रुत, सावद्यस्वप्न, नाव नदी सन्तार आदि से सम्बन्धित दोष व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग के योग्य हैं। आचार्य ने विभिन्न व्युत्सर्गों के लिए विभिन्न उच्छ्वासों का प्रमाण बताया है। तप: ___ तप का स्वरूप बताते हुए सूत्रकार ने ज्ञानातिचार ( ज्ञानसम्बन्धी दोष) आदि का निर्देश किया है एवं विभिन्न प्रकार के अपराधों के लिए एकाशन, उपवास, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, आयंबिल ( रूक्ष आहार का उपभोग) आदि का विधान किया है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से तपोदान का विचार करते हुए आचार्य ने गीतार्थ, अगीतार्थ, सहनशील, असहनशील, शठ, अशठ, परिणामी, अपरिणामी, अतिपरिणामी, धृति-देहसम्पन्न, धृति-देहहीन, आत्मतर, परतर, उभयतर, नोभयतर, अन्यतर, कल्पस्थित, अकल्पस्थित आदि पुरुषों की दृष्टि से भी तपोदान का व्याख्यान किया है । छेद : _छेद नामक सप्तम प्रायश्चित्त का प्रतिपादन करते हुए आचार्य ने बताया है कि जो तप के गर्व से उन्मत्त है अथवा जो तप के लिए सर्वथा असमर्थ है अथवा जिसकी तप पर तनिक भी श्रद्धा नहीं है अथवा जिसका तप से दमन करना कठिन है उसके लिए छेद का विधान है। छेद का अर्थ है दीक्षावस्था की काल-गणना-दीक्षा-पर्याय में कमी (छेद ) कर देना ।
मूल :
पंचेन्द्रियघात, मैथुनप्रतिसेवन आदि अपराध-स्थानों के लिए मूल नामक प्रायश्चित्त का विधान हैं।
अनवस्थाप्य :
तीव्र क्रोधादि से प्ररुष्ट चित्त वाले निरपेक्ष घोरपरिणामी श्रमण के लिए अनवस्थाप्य-प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । 1. गा० १८. २. गा० १९-२२. ३. गा० २३-७९. ४. गा० ८०-२.
५. गा० ८३-५, ६. गा० ८७-९३.
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