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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
पारांचिक:
तीर्थङ्कर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर आदि की अभिनिवेशवश पुनः पुनः आशातना करने वाला पारांचिक-प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है। इसी प्रकार कषायदुष्ट, विषयदुष्ट, स्त्यानर्द्धिनिद्राप्रमत्त एवं अन्योन्यकारी पारांचिक-प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
इन दस प्रायश्चित्तों में से अन्तिम दो प्रायश्चित्त अर्थात् अनवस्थाप्य व पारांचिक चतुर्दशपूर्वधर ( भद्रबाहु ) तक ही अस्तित्व में रहे । तदनन्तर उनका विच्छेद हो गया।
१. गा० ९४-६. २. गा० १०२.
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