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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रायश्चित्त के निम्नलिखित दस भेद हैं : (१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) उभय, (४) विवेक, (५) व्युत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) मूल, (९) अनवस्थाप्य और (१०) पारांचिक :
तं दसविहमालोयण-पडिकमणोभय-विवेग-वोसग्गा ।' तव-छेद-मूल-अणवठ्ठया य पारंचियं चेव ॥४॥
आलोचना:
छद्मस्थ को आहारादिग्रहण, बहिर्निर्गम, मलोत्सर्ग आदि क्रियाओं में अनेक दोष लगते रहते हैं जिनकी आलोचनापूर्वक ( सखेदस्वीकारोक्तिसहित ) विशुद्धि करना आवश्यक है।
प्रतिक्रमण
गुप्ति और समिति में प्रमाद, गुरु की आशातना, विनयभंग, गुरु की इच्छादि का अपालन, लघु मृषादि का प्रयोग, अविधिपूर्वक कास-जृम्भा-क्षुतवात का निवारण, असंक्लिष्टकर्म, कन्दर्प, हास्य, विकथा, कषाय, विषयानुषंग, स्खलना आदि प्रतिक्रमण के अपराध-स्थान हैं। इनका सेवन करने के पश्चात् प्रतिक्रमण करना ( किये हुए अपराधों से पीछे हटना) आवश्यक है।
उभय:
संभ्रम, भय, आपत् , सहसा, अनाभोग, अनात्मवशता, दुश्चिन्तन, दुर्भाषण, दुश्चेष्टा आदि अनेक अपराध-स्थान उभय अर्थात् आलोचना एवं प्रतिक्रमण दोनों प्रायश्चित्तों के योग्य हैं। विवेक:
कालातीत-अध्वातीत आदि दोषों से युक्त पिण्ड (आहार), उपधि (उपकरण), शय्या आदि ग्रहण करने से लगने वाले दोषों के निवारणार्थ विवेक प्रायश्चित्त का विधान है।
१. गा० ५-८.
२. गा. ९-१२.
३. गा० १३-५.
४. गा• १६-७.
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