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षष्ठ प्रकरण
जीतकल्प
__ जीतकल्प सूत्र' के प्रणेता प्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण (वि० सं० ६५० के आसपास ) हैं। इस ग्रन्थ में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के भिन्नभिन्न अपराधस्थानविषयक प्रायश्चित्त का जीत-व्यवहार के आधार पर निरूपण किया गया है। इसमें कुल १०३ गाथाएँ हैं। सर्वप्रथम सूत्रकार ने प्रवचन को नमस्कार किया है एवं आत्मा की विशुद्धि के लिए जीत-व्यवहारगत प्रायश्चित्तदान का संक्षिप्त निरूपण करने का संकल्प किया है :
कयपवयणप्पणामो, वुच्छं पच्छित्तदाणसंखेवं ।
जीयव्ववहारगयं, जीवस्स विसोहणं परमं ॥१॥ संबर और निर्जरा से मोक्ष होता है तथा तप संवर और निर्जरा का कारण है। प्रायश्चित्त तपों में प्रधान है अतः प्रायश्चित्त का मोक्षमार्ग की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। मोक्ष के हेतुभूत चारित्र की विशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त अत्यावश्यक है । ऐसी दशा में मुमुक्षु के लिए प्रायश्चित्त का ज्ञान अनिवार्य है।
१. (अ) स्वोपज्ञ भाष्यसहित-संशोधक : मुनि पुण्यविजय; प्रकाशक :
बबलचन्द्र केशवलाल मोदी, हाजा पटेलनी पोल, अहमदाबाद,
वि० सं० १९९४. (आ) सिद्धसेनकृत चूर्णि तथा श्रीचन्द्रसूरिकृत वृत्तिसहित-संपादक :
मुनि जिनविजय, प्रकाशक : जैन साहित्य संशोधक समिति, अह
मदाबाद, सन् १९२६. (इ) चूर्णि के सारांश के साथ-E. Leumann, Berlin, 1892. २. जो व्यवहार परम्परा से प्राप्त हो एवं श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा अनुमत हो वह जीत व्यवहार कहलाता है।
-जीतकल्पभाष्य, गा० ६७५ ३. जीतकल्प सूत्र, गा० २.
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