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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अठारहवाँ उद्देश :
इस उद्देश में भी लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित अनेक दोषपूर्ण क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है। वे क्रियाएँ इस प्रकार हैं :___ अकारण नाव में बैठना, नाव के खर्च के लिए पैसे लेना, दूसरों को पैसे दिलाना अथवा दूसरों से पैसे दिलाना, नाव उधार लेना, लिवाना अथवा लेकर दी जाने वाली नाव का उपयोग करना, नाव की अदला-बदली करना, कराना अथवा करने वाले की नाव का उपयोग करना, बलपूर्वक नाव छीन लेना, स्वामी की अनुमति के बिना नाव में बैठना, स्थल पर पड़ी हुई नाव को पानी में डलवाना अथवा जल में पड़ी हुई नाव को स्थल पर रखवाना, नाव में भरे हुए पानी को बाहर फेंकना, ऊर्ध्वगामिनी अथवा अधोगामिनी नौका पर बैठना, एक योजन अथवा अर्ध योजन की दूरी तक जाने वाली नाव पर बैठना, नाव चलाना अथवा नाविक को नाव चलाने में सहायता देना, छिद्र से आते हुए पानी को रोकना अथवा भरे हुए पानी को पात्र आदि से बाहर फेंकना, नाव में आहारादिक ग्रहण करना, वस्त्र खरीदना, वर्णयुक्त वस्त्र को विवर्ण बनाना, विवर्ण वस्त्र को वर्णयुक्त बनाना, सुरभिगन्ध वस्त्र को दुरभिगन्ध एवं दुरभिगन्ध वस्त्र को सुरभिगन्ध बनाना, वस्त्र को सचित पृथ्वी आदि पर सुखाना, अविधिपूर्वक वस्त्र की याचना करना (चौदहवें उद्देश में निर्दिष्ट पात्रविषयक दोषों की भाँति वस्त्र के विषय में भी सब दोष समझ लेने चाहिए ) इत्यादि । उन्नीसवाँ उद्देश :
प्रस्तुत उद्देश में निम्नोक्त क्रियाओं के लिए लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है :
अचित्त वस्तु मोल लेना, मोल लिवाना, मोल लेकर देने वाले से ग्रहण करना. उधार लेना, उधार लिवाना आदि, रोगी साधु के लिए तीन दत्ति ( दिये जाने वाले पदार्थ की अखण्ड धारा अथवा हिस्सा ) से अधिक अचित्त वस्तु ग्रहण करना, आहारादि ग्रहण कर ग्रामानुग्राम विहार करना', अचित्त वस्तु (गुड़ आदि) को पानी में गलाना, अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना, इन्द्रमहोत्सव, स्कन्दमहोत्सव, यक्षमहोत्सव एवं भूतमहोत्सव के समय स्वाध्याय करना, चैत्री (सुगिम्हिय-सुग्रीष्मी) प्रतिपदा, आषाढी प्रतिपदा, भाद्रपदी प्रतिपदा एवं कार्तिक प्रतिपदा के दिन स्वाध्याय करना, रात्रि के प्रथम तथा अन्तिम एवं दिन
१. साधु को दो कोस से आगे भाहारादि खाद्यपदार्थ ले जाने की मनाही है।
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