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________________ निशीथ २८५ पन्द्रहवाँ उद्देश : प्रस्तुत उद्देश में भी लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्तसम्बन्धी क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है। जो भिक्षु किसी साधु को आक्रोशपूर्ण कठोर वचन कहे, किसी साधु की आशातना करे, सचित्त आम्र आदि खावे, सचित्त पदार्थ पर रखा हुआ अचित्त आम्र आदि खावे, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ आदि से अपने हाथ-पाँव दबवावे, तेल आदि की मालिश करवावे, फोड़ा-फुसी आदि छिदावे धुलावे, बाल आदि कटावे, आँखें आदि साफ करावे, वाटिका आदि में टट्टी-पेशाव डाले, गृहस्थ आदि को आहार-पानी दे, गृहस्थ के धारण करने का श्वेत वस्त्र ग्रहण करे, विभूषा (शृंगार एवं शोभा) के लिए पाँव आदि का प्रमार्जन करे, रोग आदि का उपचार करे, नख आदि काटे, दाँत आदि साफ करे, वस्त्र आदि धोवे उसके लिए लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। सोलहवाँ उद्देश : ___ सोलहवें उद्देश में भी लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का ही विधान किया गया है । जो साधु पति-पत्नी के शयनागार में प्रवेश करे, पानी के घर में प्रविष्ट हो, अग्निगृह-पाकशाला में प्रवेश करे, सचित्त इक्षु-ईख आदि चूसे, अरण्य आदि में यात्रा करते समय अपने साथ रहने वाले मनुष्यों से अथवा वनोपजीवी लोगों से आहारादि ग्रहण करे, सदाचारी को दुराचारी एवं दुराचारी को सदाचारी कहे, क्लेशपूर्वक सम्प्रदाय का त्याग करने वाले साधु के साथ खान-पान तथा अन्य प्रकार का व्यवहार रखे, अनार्य देश में विचरने की इच्छा करे, जुगुप्सित कुलों से आहारादि ग्रहण करे, अशनादि जमीन, बिछौने अथवा खूटी पर रखे, गृहस्थ आदि के साथ आहार-पानी करे, सचित्त भूमि पर टट्टी-पेशाब डाले उसे उपर्युक्त प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है। सत्रहवाँ उद्देश: यह उद्देश भी लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है। कुतूहल के लिए किसी त्रस प्राणी को रस्सी आदि से बाँधना अथवा बँधे हुए प्राणी को खोलना, तूग आदि की माला बनाना, रखना अथवा पहनना, खिलौने आदि बनाना, रखना अथवा उनसे खेलना, समान आचार वाले साधु-साध्वी को स्थान आदि की सुविधा न देना, कष्टपूर्वक दिया जाने वाला आहारादि ग्रहण करना, अति उष्ण आहार ग्रहण करना, अपने आचार्य-गुरु के अपलक्षण दूसरों के सामने प्रकट करना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्य करना, वीणा आदि सुनने की इच्छा करना इत्यादि क्रियाएँ लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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