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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
करने के स्थान पर उठे-बैठे, नदी पर भीत पर, शिला पर, पाषाणखण्ड पर, खुले आकाश में सोये-बैठे, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को शिल्प-कला आदि सिखावे, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ पर कोप करे, उन्हें कठोर वचन कहे, उनसे प्रश्नोत्तर करे, उन्हें भविष्य आदि बतावे, हस्तरेखा आदि देखकर फलाफल बतावे, स्वप्न का फलाफल बतावे, मंत्र-तंत्र सिखावे, भूले भटके को मार्ग बतावे, पात्र, दर्पण, तलवार, मणि, पानी, तैल, काकच ( पतला गुड़ ), वसा (चरबी) आदि में अपना मुख देखे, (निष्कारण ) वमन करे, विरेचन ले एवं औषधि का सेवन करे, शिथिलाचारी पार्श्वस्थ ) आदि को वंदना - नमस्कार करे, धातृपिण्ड ( गृहस्थ के बाल-बच्चों को क्रीडा कराकर आहारादि ) ग्रहण करे, दूतीपिण्ड ( ग्रामान्तर आदि में जाकर समाचार कह कर आहारादि ) ग्रहण करे, निमित्तपिण्ड ( ज्योतिष आदि से फल बताकर आहार ) ग्रहण करे, आजीविकापिण्ड (ज्ञातिसम्बन्ध मिलाकर आहार ) ग्रहण करे, चिकित्सपिण्ड ( औषधोपचार कर आहार ) ग्रहण करे, क्रोधादिपूर्वक आहार ग्रहण करे उसके लिए उद्धातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान अर्थात् लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है ।
चौदहवाँ उद्देश :
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इस उद्देश में पात्रसम्बन्धी दोषपूर्ण क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है और चताया गया है कि जो भिक्षु पात्र स्वयं मोल ले, दूसरों से मोल लिवावे, दूसरा मोल लेकर देता हो उसे ग्रहण करे, उधार ले, उधार लिवावे, दूसरा उधार लेकर देता हो उसे ग्रहण करे, अदल-बदल करे, अदल-बदल करवावे, अदल-बदल कर देने वाले से ग्रहण करे, बलपूर्वक ले, स्वामी की अनुमति के बिना ले, सन्मुख लाकर देने वाले से ग्रहण करे, अतिरिक्त पात्र गणी की अनुमति के बिना दूसरे साधुओं को दे, पूर्णाङ्ग - जिनके हाथ-पैर छिन्न-टूटे नहीं हैं ऐसे छोटे साधु-साध्वी अथवा बड़े— स्थविर साधु-साध्वी को दे, अपूर्णांग साधु-साध्वी को न दे, टूटा-फूटा पात्र रखे, मजबूत एवं काम में आने लायक पात्र न रखे, वर्णयुक्त पात्र को विवर्ण करे, विवर्ण पात्र को वर्णयुक्त करे, नये पात्र में तेल आदि लगावे, सुरभिगन्ध पात्र को दुरभिगन्ध बनावे, दुरभिगन्ध पात्र को सुरभिगन्ध बनावे, अन्तररहित सचित्त पृथ्वी पर पात्र धूप में रखे, सचित्त रज से भरी हुई भूमि पर पात्र सुखावे, सचित्त जल आदि से युक्त भूमि पर पात्र सुखावे, छत, खाट, खंभे आदि पर पात्र सुखावे, गाँव के बीच में अथवा दो गाँवों के मार्ग के बीच में पात्र की याचना करे, परिषद् के बीच में उठकर किसी से पात्र मांगे, लोभ से कहीं रहे अथवा चातुर्मास - वर्षावास करे वह लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त
किसी से
पात्र के
का अधिकारी होता है ।
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