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________________ निशीथ २८३ प्रत्येक वनस्पतिकाय ( जिस वनस्पति के एक शरीर में एक जीव रहता हो ) से मिश्रित आहार का भोग करना, सलोम चर्म रखना, परवस्त्राच्छादित तृणपीठ, काष्ठपीठ आदि पर बैठना, साध्वी की संघाटी ( चादर ) अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से सिलाना, पृथ्वीकाय आदि की विराधना करना, सचित्त वृक्ष पर चढ़ना, गृहस्थ के भाजन में भोजन करना, गृहस्थ के वस्त्र पहनना, गृहस्थ की शय्या पर सोना, गृहस्थ का औषधोपचार करना, पूर्वकर्म ( हाथ, बर्तन आदि धोकर तुरन्त तैयार होकर बैठे हुए दाता के हाथ से आहारादि ग्रहण करने पर लगने वाले ) दोष से युक्त अशनादि ग्रहण करना, काष्ठ आदि के चित्र-विचित्र पुतले आदि देखने के लिए लालायित रहना, निर्झर, गुफा, सरोवर आदि विषम स्थानों को देखने के लिए उत्कण्ठित रहना, ग्राम-नगर आदि चक्षुर्दर्शन की तुष्टि के लिए देखने के लिए आतुर रहना, अश्वक्रीडा, हस्तिक्रीडा, शूकरक्रीडा आदि देखने के लिए आतुर रहना, गोशाला, अश्वशाला, हस्तिशाला आदि देखने की अभिलाषा रखना, प्रथम पौरुषी (प्रहर) में ग्रहण किया हुआ आहार पश्चिम - चतुर्थ पौरुषी तक रखना, अर्धयोजन - दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, ( फोड़े-फुंसी आदि पर लगाने के लिए ) एक दिन गोमय - गोचर ग्रहण कर दूसरे दिन काम में लेना, दिन को गोचर ग्रहण कर रात्रि को काम में लेना, रात्रि को गोचर ग्रहण कर दिन को काम में लेना, रात्रि को गोबर ग्रहण कर रात्रि को ही काम में लेना ( जिस दिन दिन के समय ग्रहण किया हो उसी दिन दिन के समय काम में ले लेना चाहिए ), इसी प्रकार आलेपन आदि का भी समय की मर्यादा का उल्लंघन कर उपयोग करना, अपने उपकरण अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से उठवाना, गृहस्थ आदि से काम करवा कर बदले में आहारादि देना, निम्नोक्त पाँच महानदियों को महीने में दो-तीन बार पार करना : १. गंगा, २. यमुना, ३. सरयू, ४. ऐरावती और ५. मही ।' तेरहवाँ उद्देश : यह उद्देश भी लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है । जो भिक्षु-साधु – निर्ग्रन्थ – मुनि-भ्रमण सचित्त पृथ्वीकाय से सटकर बैठे, सोये, स्वाध्याय करे, सचित्त रज से भरी हुई शिला पर शयन करे, बैठे, स्वाध्याय करे, सचित्त पानी से आर्द्र पृथ्वी पर शयन करे, बैठे, स्वाध्याय करे, घर की देहली पर, ऊखल पर, स्नान १. बृहत्कल्प सूत्र में भी इन्हीं पाँच नदियों को महीने में दो-तीन बार पार करने का निषेध किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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