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निशीथ
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के प्रथम तथा अन्तिम-इन चारों प्रहरों के समय स्वाध्याय नहीं करना, नीचे के सूत्र का उल्लंघन कर ऊपर के सूत्र की वाचना देना, 'नव ब्रह्मचर्य' (आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध ) को छोड़कर अन्य सूत्र पढ़ाना,' अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना, योग्य को शास्त्र न पढ़ाना, आचार्य-उपाध्याय से न पढ़कर अपने आप ही स्वाध्याय करना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को पढ़ाना अथवा उससे पढ़ना, पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारियों को पढ़ाना अथवा उनसे पढ़ना। बीसवाँ उद्देश:
बीसवें उद्देश के प्रारम्भ में सकपट एवं निष्कपट आलोचना के लिए विविध प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है। सकपट आलोचना के लिए निष्कपट आलोचना से एकमासिकी अतिरिक्त प्रायश्चित्त करना पड़ता है। किसी भी दशा में षण्मासिकी से अधिक प्रायश्चित्त का विधान नहीं है । प्रायश्चित्त करते हए पुनः दोष का सेवन करने वाले के लिए विशेष प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गई है। व्यवहार सूत्र के प्रथम उद्देश में भी इन्हीं शब्दों में इन बातों पर प्रकाश डाला गया है।
निशीथ सूत्र के प्रस्तुत परिचय से स्पष्ट है कि इस ग्रंथ का जैन आगमों में एक विशिष्ट स्थान है। इसमें केवल प्रायश्चित्तसम्बन्धी क्रियाओं का वर्णन है। गुरुमासिक, लघुमासिक, गुरु चातुर्मासिक और लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य समस्त महत्त्वपूर्ण क्रियाओं का समावेश आचार्य ने प्रस्तुत सूत्र में किया है। इस दृष्टि से निशीथ निःसन्देह अन्य आगमों से विलक्षण है। निशीथ का अर्थ है अप्रकाश अर्थात् अन्धकार । दोष एवं प्रायश्चित्तविषयक सबके समक्ष अप्रकाशन के योग्य किन्तु योग्य के समक्ष प्रकाशन के योग्य जिनवचनों के संग्रह के लिए निशीथ सूत्र का निर्माण किया गया है।
१. इस समय पहले दशवैकालिक पढ़ाया जाता है।
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