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________________ २७.८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ले, टट्टी पेशाब करे, स्वाध्याय करे, पढ़ावे, वाचना दे, वाचना ले, अपनी चादर ( संघाटिक) अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से सिलावे, चादर मर्यादा से अधिक लंबी बनावे, पलाश आदि के पत्ते धोकर उन पर आहार करे, प्रातिहारिक पादपोंछन को उसी दिन वापिस न लौटावे, सन आदि के धागे को बट कर लम्बा बनावे, चित्त लकड़ी का दण्ड आदि बनावे अथवा रखे अथवा उपयोग में ले, चित्रविचित्र दण्ड आदि बनावे, रखे अथवा काम में नये बसे हुए अथवा बसाये हुए ( सेनादि के पड़ाव के कारण स्थापित हुए ) ग्राम आदि में जाकर आहारादि ग्रहण करे, नई खुदी हुई लोहे, ताँबे, सीसे, चाँदी, सोने, रत्न अथवा वज्ररत्न की खान में प्रवेश कर आहारादि ग्रहण करे, मुख को वीणा जैसा बनावे, नाकादि को वीणा जैसा बनावे, पत्र, फूल, फल, बीज आदि की वीणा बनावे, उपर्युक्त वीणाओं को बनावे, अन्य प्रकार के शब्दों की नकल करे, औद्देशिक― उद्दिष्ट शय्या आदि का उपयोग करे, सामाचारीविरुद्ध आचार वाले साधु-साध्वी के साथ आहारविहार करे, दृढ एवं पूर्ण वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण आदि को भाँग-तोड़ कर फेंक दे, प्रमाण से अधिक लंबा रजोहरण रखे, बहुत छोटा एवं पतला रजोहरण रखे, रजोहरण को अविधि से बाँधे, रंग-विरंगे अथवा विविध नाति के धागों का रजोहरण बनावे, रजोहरण को अपने से बहुत दूर रखे अथवा गमनागमन के समय रजोहरण पास में न रखे, रजोहरण पर बैठे, रजोहरण को सिर के नीचे रखे, रमोहरण पर सोवे उसके लिए मास-लघु प्रायश्चित्त का विधान है । छठा उद्देश : प्रस्तुत उद्देश में मैथुनसम्बन्धी क्रियाओं के लिए चातुर्मासिक अनुद्धातिक परिहारस्थान अर्थात् गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। वे क्रियाएँ इस प्रकार हैं :-- स्त्री से मैथुनसेवन के लिए प्रार्थना करना, मैथुन की कामना से हस्तकर्म करना, स्त्री की योनि में लकड़ी आदि डालना, अपने लिंग का परिमर्दन करना, अपने अंगादान की तैल आदि से मालिश करना, अचित्त छिद्र आदि में अंगादान का प्रवेश कर शुक्र- पुद्गल निकालना, वस्त्र दूर कर नग्न होना, निर्लज्ज वचन बोलना, क्लेश करना, क्लेशकारी वचन बोलना, वसति छोड़कर अन्यत्र जाना, विषयभोग के लेख लिखना लिखवाना, लेख लिखने - लिखवाने की इच्छा से बाहर जाना, गुदा अथवा योनि में लिंग डालना इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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