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निशीथ
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सातवाँ उद्देश :
इस उद्देश में भी मैथुनविषयक क्रियाओं पर ही प्रकाश डाला गया है एवं उनके लिए चातुर्मासिक अनुद्धातिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। वे क्रियाएँ इस प्रकार हैं :
मैथुन की अभिलाषा से तृणमाला, मुंजमाला, दंतमाला, शृंगमाला, शंखमाला, पत्रमाला, पुष्पमाला, फलमाला, बीजमाला आदि बनाना, रखना एवं धारण करना, लोह, ताम्र, रौप्य, सुवर्ण आदि का संचय एवं उपभोग करना, हार, अर्धहार, एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, कटक, तुडिय, केयूर, कुंडल, पंजल, मुकुट, प्रलम्बसूत्र, सुवर्णसूत्र आदि बनाना एवं धारण करना, चर्म के विविध प्रकार के वस्त्र बनाना एवं धारण करना, सुवर्ण के विविध जाति के वस्त्र बनाना एवं धारण करना, आँख, जंघा, उदर, स्तन आदि हाथ में पकड़ कर हिलाना अथवा मसलना, परस्पर पैर झाड़ना-पोंछना, स्त्री को अंकपर्यक में बैठाना-सुलाना, गोद में बैठाकर आहारादि खिलाना-पिलाना, पशु-पक्षी के पाँव, पंख, पूँछ आदि गुप्त अंग में लगाना, पशु-पक्षी के गुह्य स्थान में लकड़ी आदि डालना, पशु-पक्षी को स्त्रीरूप मानकर उनका आलिंगन चुम्बन करना, मैथुनेच्छा से किसी को आहारादि देना, शास्त्र पढ़ाना, वाचना देना, किसी वस्तु का काम विकार उत्पन्न करने वाला आकार बनाना इत्यादि। आठवाँ उद्देश :
यह उद्देश भी चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है। इसमें बताया गया है कि जो साधु धर्मशाला (आगंतार) आदि में अकेली स्त्री के साथ रहे, स्वाध्याय करे, अशनादि चारों प्रकार का आहार करे, टट्टी-पेशाब करे, कामोत्पादक पापकथा कहे, रात्रि अथवा संध्या के समय स्त्रियों से घिरा हुआ लम्बी-चौड़ी कथा कहे, स्वगण अथवा परगण की साध्वी के साथ ग्रामानुग्राम विचरते हुए कभी उसके आगे-पीछे रह जाने पर वियोग से दुःखितहृदय हो विहार करे, अपने गृहस्थावास के स्वजनों को रातभर पास रखकर शयन करे, अपने पास रहते हुए स्वजनों को अपने से दूर रहने के लिए न कहे, उन्हीं के साथ उपाश्रय से बाहर जावे एवं भीतर आवे, राजा आदि द्वारा विशेष तौर पर तैयार किया गया आहारादि ग्रहण करे, राजा की हस्तिशाला, गजशाला, मंत्रशाला, गुह्यशाला, रहस्यशाला, मैथुनशाला आदि में जाकर आहारादि ग्रहण करे, राजा के यहाँ से दूध, घृत, शर्करा, मिश्री अथवा अन्य किसी भी प्रकार का भोजन ग्रहण
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